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________________ उपदेश पुष्पमाला / 45 रइरिद्धिबुद्धिगुणसुंदरीण तह सीलरक्खणपयत्तं । सोऊण विम्हयकरं, को मइलइ सीलवररयणं ? ।। 64 ।। रतिरिद्दिबुद्दिगुण सुन्दरीणां तथा शीलरक्षणप्रयत्नम् । श्रुत्वा विस्मयकरं, कः मलिनयति शीलवररत्नम् ।। 64 ।। रति सुन्दरी, ऋद्धि सुन्दरी, बुद्धि सुन्दरी और गुण सुन्दरी भी शील- रत्न की सुरक्षा हेतु प्रयत्नशील की कथा को श्रवण कर विस्मय करती हैं तो फिर कौन अति श्रेष्ठ शील को मलिन करेगा ? अर्थात् यह जानकर कोई भी व्यक्ति अपने शील को दूषित करना नहीं चाहेगा । जलही वि गोपयं चिय, अग्गी वि जलं विसं पि अमयसमं । सीलसहायाण सुरा, वि किंकरा हुंति भुवणम्मि ।। 65 || जलधिरपि गोष्पदं इव, अग्निरपि जलं विषं अपि अमृतसमं । शीलसहायानां सुरा अपि, किङ्कराः भवन्ति भुवनेऽस्मिन् ।। 65 ।। इस लोक में शील के प्रभाव से समुद्र भी मात्र गाय के खुर के समान अल्प जल वाला बन जाता है, अग्नि जल के समान शीतल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है तथा देव भी सेवक बन जाते हैं। सुरनररिद्धी नियकिंकरिव्व गेहंगणेव्व कप्पतरू । सिद्धिसुहं पिव करयल-गयं व वरसीलकलियाणं । । 66 || सुरनररिद्धि निजकिङ्करी इव गृहाङ्गणे इव कल्प तरूः । सिद्धिसुखं अपि करतलगतं इव वरशीलकलितानाम् ।। 66 ।। श्रेष्ठ चरित्रवान् व्यक्तियों के लिये देवीय ऐश्वर्य एवं मानवीय सम्पदा स्वयं की दासी के समान अधीन होकर रहते हैं, मानों कल्पवृक्ष गृह आंगन में उपस्थित हो गया हो अथवा मानों सिद्धि का सुख उड़कर हस्त - कमल में आ गया हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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