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उपदेश पुष्पमाला / 43
उन्नयविहवो वि कुलुग्गओ वि समलंकिओ विरूवी वि। पुरिसो न सोहइच्चिय, दाणेण विणा गयंदुव्व ।। 58 ।। उन्नत - विभवोऽपि कुलाग्रकोऽपि समलङ्कृतोऽपि रूपी अपि । पुरुषः न शोभते एव दानेन बिना गजेन्द्र इव ।। 58 ।। विपुल ऐश्वर्य - संयुक्त उत्तम कुल में जन्म लेकर अलंकारों से सुसज्जित सौन्दर्यशाली पुरूष भी दान के बिना उसी प्रकार शोभायमान नहीं होता, जिस प्रकार गजेन्द्र (हाथी) मद के बिना |
लद्धो वि गरुयविहवो, सुपत्तखेत्तेसु जेहिं न निहितो । ते महुराउरिवणिओव्व, भायणं हुंति सोअस्स ।। 59 ।। लब्धोऽपि महान् विभवः सुपात्रक्षेत्रेषु यदि न निक्षिप्तः । ते मथुरापुरीवाणिगिव, भाजनं भवन्ति शोकस्य ।। 59 ।। इति पुष्पमाला वृत्तौ तृतीय - मुपष्टम्मद्वारं समाप्तम् ।
सुपात्र दान के योग्य क्षेत्र अर्थात् साधु के मिलने पर भी यदि व्यक्ति वैभव के त्याग रूप दान नहीं देता है तो ऐसा व्यक्ति मथुरापुरी के सेठ के समान अति शोक का कारण बन जाता है ।
(2) शीलाधिकारः
इय इक्कं चिय दाणं भणियं नीसेसगुणगणनिहाणं । जइ पुण सीलं पि हवेज्ज, तत्थ ता मुद्दियं भुवणं । । 60 ।। इति एकं चैव दानं, भणितं निःशेष गुणगणनिधानम् । यदि पुनः शीलं अपि भवेत्, तत्र मुद्रितं (स्थगित) भवन || 60 || कहा गया है कि एक मात्र दान ही सभी गुणों की प्राप्ति का मूल स्रोत है।
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