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________________ भी प्राप्ति होती है । दाउ सुपत्तदाणं, तम्मि भवे चेव निव्वुआ के वि । अन्ने तइयभवेणं, भोत्तूण नरामरसुहाई ।। 51 ।। दत्वा सुपात्रदानं तस्मिन् भवे चैव निवृत्ता केचित् । अन्ये तृतीयभवेन, भुक्त्वा नरामर - सुखादीन् ।। 51 ।। कुछ लोग सुपात्र दान देकर इसी भव में संसार परिभ्रमण रूप दुःखों से निवृत्त होकर सिद्ध गति को प्राप्त हो गये और कुछ लोग देव और मनुष्य गति के सुखों का उपभोग करके तीसरे भव में सिद्ध- पद को प्राप्त होंगे ? जायइ सुपत्तदाणं, भोगाणं कारणं सिवफलं च । जह दुण्ह भाउआणं, सुयाण निवसूरसेणस्स ।। 52 ।। जायते सुपात्रदानं, भोगानां कारणं शिवफलं च । यथा द्वयोः भातृयोः सुतयोः नृपशूरसेनस्य ।। 52 ।। सुपात्र दान सांसारिक सुखों का भी हेतु है तथा साथ ही शिव-सुख का भी दाता है। जैसे- सुपात्र दान से सूरसेन राजा के दोनों पुत्रों को सांसारिक सुखों एवं शिव-सुख दोनों की प्राप्ति हुई । पहसंतगिलाणेसुं, आगमगाहीसु तह य कयलोए । उत्तरपारणगम्मि य, दिन्नं सुबहुप्फलं होइ ।। 53 ।। पथश्रान्तेभ्यग्लानेभ्यः आगमग्राहिभ्यः तथा च कृत लोचेभ्यः । उत्तरपारणके च दत्तं सुवहुफलं भवति ।। 53|| पदयात्रा से श्रमित हुये, ग्लान, शास्त्रज्ञ, और तपस्वी अणगार को दिया गया आहारादि का दान अत्यन्त फलदायी होता है। बज्झेण अणिच्चेण य, धणेण जइ होइ पत्तनिहिएणं । निच्चंतरंगरूवो, धम्मो ता किं न पज्जतं ? ।। 54 ।। Jain Education International उपदेश पुष्पमाला / 41 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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