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उपदेश पुष्पमाला/ 31
अभिनिवोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानं चैव अवधिज्ञानं च।
तथा मनःपर्यायज्ञानं, केवलज्ञानं च पंचमम् ।। 17 || प्रथम द्वार मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान तथा मनः पर्याय-ज्ञान और केवलज्ञान ये ज्ञान के पांच प्रकार है। .
एत्थं पुण अहिगारो, सुअनाणेणं जओं सुएणं तु। सेसाणमप्पणोऽवि य, अणुओगपईवदिटुंतो।। 18 ।।
अत्र पुनः अधिकारः श्रुतज्ञानेन यतः श्रुतेन तु । शेषानां आत्मनोऽपि च अनुयोगप्रदीप वत् दृष्टान्तः।। 18 ।। अब ज्ञान का विवेचन करते हैं। श्रुत या श्रुतज्ञान के द्वारा ही मतिज्ञानादि के स्वरूप की प्रज्ञापना की जाती है। ज्ञान दीपक के समान होता है। जिस प्रकार दीपक स्वयं भी प्रकाशित होता है एवं अन्य को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं को प्रकाशित करता है और अपने विषय को भी प्रकाशित करता है।
एक्कम्मि वि मोक्ख-पयम्मि होइ जो एत्थ निच्चमाउत्तो। तं तस्स होइ नाणं, छिंदइ सो तेण दुहजालं ।। 19 ।। एकस्मिन् अपि मोक्ष पदे भवति यः अत्र नित्यमायुक्तः। तत् तस्य भवति ज्ञानं, छिनत्ति सः तेन दुःखजालं ।। 19 ।। जो संसार में दुःख प्रदान करने वाले कर्म-रूपी जाल का छेदन करता है और मोक्ष पद को प्राप्त कराता है, वही ज्ञान है।
संविग्गो गीयत्थो, मज्झत्थो देसकालभावन्नू । नाणस्स होइ दाया, जो सुद्धपरूवओ साहू ।। 20 ।।
संविग्नः गीतार्थः, मध्यस्थः देशकाल-भावज्ञः । ज्ञानस्य भवति दाता, यः शुद्दप्ररूपकः साधुः।। 20 ।। संविग्न, गीतार्थ, मध्यस्थ (राग-द्वेष से रहित) देशकाल भाव का ज्ञाता, शुद्ध
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