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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 29 चाहिये। जैसे शान्तिनाथ भगवान ने वज्रायुध भव में अनेक जीवों को अभयदान दिया था। जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सयलजीवाणं। न हणइ न हणावेइ य, धम्मम्मि ठिओ स विण्णेओ।। 11|| यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एवमेव सकल जीवानां। न हन्ति न घातयति च धर्मे स्थितः सः विज्ञेयः।। 1111 जैसे "मुझे दुःख प्रिय नहीं" है ऐसे ही सभी जीवों के सम्बन्ध में समझकर जो न मारता है, न मरवाता है वही व्यक्ति धर्म मे स्थित है या धर्म के सम्यक् स्वरूप का विज्ञाता है। जे उण छज्जीववहं, कुणंति असंजया निरणुकंपा। ते दुहलक्खाभिहया, भमंति संसारकंतारे।। 12 ।। विपर्ययवतां दोषान् दिदर्शयिषुः आह ये पुनः षट्जीववधं कुर्वन्ति असंयताः निरनुकम्पाः । ते दुःखलक्षाभिहताः, भ्रमन्ति संसार कान्तारे।। 12|| जो षट्जीव निकाय का घात करते हैं वे असंयत है, अनुकंपा रहित है। वे अनेक प्रकार के दुःखों से पीडित होकर इस संसार रुपी अटवी में भ्रमण करते रहेगें। वहबंधमारणरया, जियाण दुक्खं बहुं उईरंता। होंति मियावइतणउव्व, भायणं सयलदुक्खाणं।। 13।। वधबन्धमारणरताः जीवानां दुःखं बहु उदीरयन्तः । भवन्ति मृगावतीतनय इव, भाजनं सकल-दुःखानाम् ।। 13 ।। प्राणियों के वध, बन्धन, प्राणहरण आदि कार्यों में जो निरत रहते हैं, वे मृगावती के मृगापुत्र के समान शरीर को प्राप्त कर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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