________________
184 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
इत्थ वीसऽहिगारा, जीवदयाईहिं विविहअत्थेहिं। गाहाणं पंचसया, पणुत्तरा होंति संखाए।। 499 ।। इह विंशति-अधिकाराः, जीवदयादिभिः विविध अर्थेः ।
गाथानां पंचशता, पंचोत्तरा भवन्ति सङ्ख्या ।। 499 ।। इस प्रकरण में जीवदया आदि विविध विषयों से मुक्त बीस अधिकार हैं और अर्थपूर्ण गाथाओं की संख्या पांच सौ पांच हैं।
उवएसमालकरणे, जं पुन्नं अज्जियं मए तेण। जीवाणं होज्ज सया, जिणोवएसम्मि पडिवत्ती।। 500 ।।
उपदेशमालाकरणे, यत् पुण्यं अर्जितं मया तेन। जीवानां भवेत् सदा, जिनोपदेशे प्रतिपत्तिः।। 500।। इस उपदेशमाला की रचना करके जो पुण्य मैंने अर्जित किया है उसके परिणाम स्वरूप प्राणियों में जिनधर्म के प्रति सम्यक् श्रद्धा और आदर भाव हो।
जाव जिणसासणमिणं, जाव य धम्मो जयम्मि विप्फुरइ। ताव पढिज्जउ एसा, भव्वेहिं सयासुहत्थीहिं।। 501 ।। यावत् जिनशासनमिदं, यावत् धर्मों जगति विस्फुरति।
तावत् पठयेत एषा, भव्यैः सदा सुखार्थिभिः ।। 501 ।। जब तक जिन शासन है और जब तक संसार में धर्म विद्यमान रहे तब तक इस उपदेश माला को शाश्वत् सुखों की प्राप्ति के लिये भव्य प्राणी सर्वदा पढ़ते रहेंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org