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182 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
एक्कं पि पयं सोउं, अन्ने सिज्झति समरनिवइव्व । संजायकम्मविवरा, जीवाण गई अहो !! विसमा ।। 493 | एक अपि पदं श्रुत्वा अन्ये सिध्यन्ति समरनृपतिः इव । संजातकर्मविवराः, जीवानां गतिः अहो ! विषमा।। 493 ।। मोक्ष के साधक एक भी पद (स्थान) को सुनकर समरराजा के समान कुछ ही व्यक्ति सिद्धि को प्राप्त कर पाते हैं । अरे! संसारी जीवों की गति अत्यन्त विषम है अर्थात् मोह कर्म का क्षय करना अत्यन्त दुःसाध्य है। तम्हा सकम्मविवरे, कज्जं साहंति पाणिणो सव्वे ।
तो तह जज्ज सम्मं, जह कम्मं खिज्जइ असेसं ।। 494 ।। तस्मात् स्वकर्मविवरे, कार्यं साध्यन्ति प्राणिनः सर्वे । ततस्तथा यतेत सम्यक् यथा कर्म क्षीयते अशेषं ।। 494 ।। अपने कर्मों को क्षय करके ही प्राणी मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रयत्न शील हो सकते हैं। अतः कर्मक्षय हेतु सतत् एवं सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील रहना चाहिये, जिससे अन्ततो- गत्वा मोक्ष - सुख की प्राप्ति हो सके।
कम्मक्खए उवाओ, सुयाणुसारेण पगरणे इत्थ । लेसेण मए भणिओ, अणुट्ठियव्वो सुबुद्धीहिं ।। 495 ।। कर्मक्षये उपायः श्रुतानुसारेण प्रकरणे अत्र ।
लेशेन मया भणितः, अनुष्ठेयः सुबुद्धिभिः ।। 495।। इस उपदेश माला प्रकरण में मैंने आगम के अनुसार कर्मक्षय के उपाय संक्षेप में बताऐ हैं। अतः सुबुद्धिजन इन उपायों के द्वारा अपने कर्मों को क्षय करने का पुरूषार्थ करें।
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