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________________ 146 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री मातृपितृवन्धु - भार्यासुतेषु प्रेम जने सविशेषम् । चुलणीकथया तत् पुनः कनकरथविचेष्टितेन च ।। 386 ।। तथा भरतनृपतिभार्या अशोकचन्द्रादिचरितश्रवणेन । अतिविरसं चैव निश्चीयते विचेष्टितं मूढहृदयानां ।। 387 || व्यक्ति का माता-पिता, भाइ - भार्या, (पत्नी) पुत्र आदि परिजनों पर विशेष अनुराग होता है, यह जानता हूँ । परन्तु अन्तिम समय में यही अनुराग निर्वेद जनक होता है । चुलनी के दृष्टान्त से मातृ प्रेम कनकरथ के दृष्टान्त से पितृस्नेह, भरत के चरित्र श्रवण से, भ्रातृप्रेम, प्रदेशीराजा के चरित्र श्रवण से, भार्या प्रेम, एवं अशोकचन्द्र कुणिक के चरित्र के श्रवण से पुत्र स्नेह की निरर्थकता ही सिद्ध होती है। प्रारम्भ में सभी आनन्ददायी प्रतीत होते हुये भी, अन्त में इनकी निस्सारता ही प्रकट हुई । होंति मुहेच्चिय महुरा, विसया किंपागभूरुहफलं व । परिणामे पुण तेच्चिय, नारयजलणिंधणं मुणसु ।। 388 ।। भवन्ति मुखएव मधुरा, विषया किंपाकभूरूहफलवत् । परिणामे पुनः ते एव, नारक ज्वलनेन्धनं जानीहि ।। 388 ।। शब्दादि विषय पहले तो किंपाक फल की तरह मधुर लगते हैं परन्तु परिणाम में इन विषयों के दारुण स्वरुप को नारकीय अग्नि का इंधन ही जानो । विसयावेक्खो निवडइ, निरवेक्खो तरइ दुत्तरभवोहं । जिणवीरविणिद्भिट्ठो, दिट्ठ तो बंधुजुयलेणं ।। 389 ।। विषयापेक्षः निपतति, निरपेक्षः तरति दुस्तरंभवौधं । जिनवीरविनिर्दिष्टः, दृष्टं तत् वन्धुयुगलेन ।। 389 ।। विषयाभिलाषी इस विषय रूपी संसार सागर में डूब जाता है जबकि इन विषयों से विरक्त होने वाला व्यक्ति इस दुस्तर सागर से तर जाता है इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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