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________________ 136/ साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री शिष्य उस प्रायश्चित्त को स्वीकार कर कालान्तर में अन्य व्यक्तियों के जैसे ही अपराधों के लिये भी उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। पूर्णरूपेण छेदसूत्र आदि के ज्ञाता गुरु के द्वारा शिष्य के प्रति अनुग्रह करके जो कुछ प्रायश्चित्त विधान बताया जाता है तब शिष्य उसको धारण कर उस धारणा के आधार पर प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणा व्यवहार कहा जाता है । दव्वाइ चिंतिऊणं, संघयणाईण हाणिमासज्ज । पायच्छित्तं जीयं, रूढं वा जं जहिं गच्छे ।। 358 ।। द्रव्यादीन् चिन्तयित्वा संहननादीनां हानिमासाद्य । प्रायश्चित्तं जीतं, रुढं वा यत् यदि गच्छे ।। 358 ।। शिष्य की योग्यता एवं क्षमता का विचार कर अथवा वर्तमान काल में शिष्यों की शारीरिक क्षमता की हीनता या देशकाल का विचार कर गीतार्थ के द्वारा छेद सूत्रों से कम-अधिक प्रायश्चित्त देना अथवा जिस गच्छ में जिस प्रकार की प्रायश्चित्त व्यवस्था चली आ रही है तदनुरूप प्रायश्चित्त देना जीत व्यवहार है । अगीओ न वियाणेइ, सोहिं चरणस्स देइ ऊणऽहियं । तो अप्पाणं आलो-यगं च पाडेइ संसारे ।। 359 ।। अगीतार्थः न विजानाति, शोधिं चरणस्य ददाति ऊणाधिकम् । ततः आत्मानं आलोचकं च पातयति संसारे ।। 35911 अगीतार्थ चारित्र शुद्धि की प्रक्रिया को नहीं जानते हैं। इसलिये वे सूत्र में कथित प्रायश्चित्त से कभी कम या कभी अधिक प्रायश्चित्त दे देते हैं । जिससे वे स्वयं एवं आलोचना करने वाले दोनों ही संसार परिभ्रमण में वृद्धि करते हैं । तम्हा उक्कोसेणं, खित्तम्मि उ सत्तजोयणसयाइं । काले बारसवरिसा, गीयत्थगवेसणं कुज्जा ।। 360 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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