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________________ 122 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री जं पिच्छसि जियलोए, चउगइसंसारसंभवं दुक्खं । जं जाण कसायफलं, सोक्खं पुण तज्जयस्स फलं ।। 314 ।। यत् प्रेक्षसे जीवलोके, चतुर्गति-संसारभवं दुःखं । तत् जानीहि कषाय फलं, सौख्यं पुनः तत् जयस्यफलं ।। 314 ।। इस चतुर्गति संसार में जो दुःख दिखाई देते हैं वे सब इन्हीं कषायों का ही फल है और इन कषायों पर विजय प्राप्त करने का फल मोक्ष सुख है । तं वत्युं मुत्तव्वं, जं पइ उप्पज्जए कसायऽग्गी । तं वत्युं घित्तव्वं, जत्थोवसमो कसायाणं ।। 315 ।। एसो सो परमत्थो, एयं तत्तं तिलोयसारमिणं । सयलदुहकारणाणं, विणिग्गंहो जं कसायाण ।। 316 ।। तत् वस्तु मोक्तव्यं यत् प्रति उत्पद्यते कषायाग्निः । तत् वस्तु ग्रहीतव्यं, यत्रोपशमो कषायानाम् ।। 315 ।। एषः सः परमार्थः, एतत् तत्वं त्रिलोकसारमेतत् । सकलदुःख कारणानां विनिग्रह यत् कषायानाम् ।। 316 ।। जिसके संसर्ग से कषाय रूपी आग उत्पन्न होती है उसका परित्याग कर देना चाहिये और जिससे यह कषाय- अग्नि शांत हो जाये उसको ग्रहण करना चाहिये। यही परमार्थ (परमतत्त्व ) है और यही तीनों लोकों का सारभूत है। अतएव सभी दुःखों के कारण भूत इन कषायों का निग्रह करना चाहिए। " माया लोभो रागो, कोहो माणो य वण्णिओ दोसो । निज्जिणसु इमे दोन्नि वि, जइ इच्छसि तं पयं परमं ।। 317 ।। मायालोभौ रागः, क्रोधः मानौ च वर्णितः द्वेषः । निर्जरा ऐतौ द्वौ अपि यदिच्छसि तत् पदं परमम् ।। 317 | माया और लोभ से राग उत्पन्न होता है तथा क्रोध एवं मान के परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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