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120 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
जहजह वड्ढइ विहवा, तहतह लोभोवि वड्ढए अहिर्य।
देवा इत्थाहरणं, कविलो वा खुड्डओ वा वि।। 308 || यथा यथा वर्धते विभवः, तथा तथा लोभोऽपि वर्धते अधिकं ।
देवा अत्रोदाहरणं, कपिलः वा क्षुल्लको वा अपि।। 308 || जैसे-जैसे धन (वैभव) बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता जाता है। देवों में क्रोध, मान और माया की अपेक्षा भी लोभ की मात्रा अधिक है और मर्त्यलोक में भी मनुष्यों में धन के प्रति मूर्छा अधिक है इस हेतु कपिल एवं क्षुल्लक के उदाहरण द्रष्टव्य है।
सामन्नमणुचरंतस्स, कसाय जस्स उक्कडा हुति। मन्नामि उच्छुपुप्फ व, निरत्थयं तस्स सामन्नं ।। 309 ।। श्रामण्यंमनुचरन् तस्य, कषायाः यस्य उत्कटा भवन्ति।
मन्ये इक्षुपुष्पं इव, निरर्थकं तस्य श्रामण्यं ।। 309 ।। जो श्रमण जीवन में सम्यक् चारित्र का आचरण करते हैं यदि वे भी क्रोधादि कषायों की तीव्रता से ग्रसित हैं तो वे उनका श्रमणत्व इक्षु के पुष्प की तरह निष्फल है।
जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। तंपि कसाइयमित्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं ।। 310।।
यत् अर्जितं चारित्रं, देशोनया पि पूर्वकोट्या। तत् अपि कषायितमात्रं, हारयति नरः मुहूर्तेन।। 310 ।। कुछ कम पूर्व कोटि वर्षों तक चारित्र धर्म का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए भी कोई-कोई मनुष्य कषाय के द्वारा ग्रसित हो जाये तो उस चारित्र से मात्र अन्तर्मुहूर्त में ही पतित हो जाता है।
जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं । न हु मे वीससियव्वं, थोवे कसायसेसम्मि।। 311 ।।
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