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उपदेश पुष्पमाला/9
भूमिका
प्रो. सागरमल जैन
जैन धर्म साधना प्रधान धर्म है। साधना आचार परक होती है और यह आचार ही व्यक्ति के नैतिक जीवन का आधार होता है। धर्म नैतिकता विहीन नहीं हो सकता है। नैतिकता भी धर्म विहीन नहीं हो सकती है। नैतिकता विहीन धर्म और धर्म विहीन नैतिकता दोनों ही मिथ्या कल्पनायें है। एक पाश्चात्य दार्शनिक ब्रेडले ने कहा था कि "यदि नैतिकता धर्म विहीन है तो वह नैतिक नहीं और यदि धर्म नैतिकता विहीन है तो वह धर्म, धर्म नहीं है।" संक्षेप में धर्म और नैतिकता एक दूसरे से जुड़े हुये है। धर्म का सार तत्त्व नैतिक जीवन जीना ही है।
नैतिक जीवन या धार्मिक जीवन जीने के लिये मार्गदर्शन या उपदेश आवश्यक होता है, यही कारण रहा है कि विश्व में जो भी प्रमुख धर्म आये उनमें नैतिक जीवन के लिये उपदेश दिये गये, जो कालान्तर में धर्मग्रन्थ बन गये। यदि हम विश्व के किसी भी धर्म के धर्म-ग्रन्थ को ले, तो मुख्य रूप से उस धर्म ग्रन्थ में आस्था के पोषण के साथ-साथ नैतिक आचरण से सम्बन्धित उपदेश परक भाग ही अधिक होता है। चाहे हिन्दु धर्म मे उपनिषद् या उनके भी सार रूप तत्त्व में हम गीता को ही ले तो गीता भी एक उपदेशपरक ग्रन्थ ही है। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के त्रिपिटिक साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से धम्मपद या
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