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________________ जेनुं महासाम्राज्य एकेन्द्रिय सुधी विलसी रह्युं, जेने बनी परवश जगत आ दुःखमां कणसी रह्यं, जे पापनो छे बाप ते धनलोभ में पोष्यो घणुं, आ पापमय... (९) तन धन स्वजन उपर में खूब राख्यो राग पण, ते रागथी 'करवुं पडे मारे घणा भवमां भ्रमण, मारे हवे करवुं हृदयमां स्थान शासनरागनुं, आ पापमंय... (१०) में द्वेष राख्यो दुःख पर तो सुख मने छोडी गयुं, सुख दुःख पर समभाव राख्यो, तो हृदयने सुख थयुं, समजाय छे मुजने हवे, छे द्वेष कारण दुःखनुं, आ पापमय... (११) जे स्वजन तन धन उपरनी ममता तजी समता धरे, बस, बारमो होय चन्द्रमा तेने कलह साथे खरे, जिनवचनथी मघमघ थजो मुज आत्मना अणुए अणु, आ पापमय... (१२) जो पूर्वभवमां एक जूटुं आळ आप्युं श्रमणने, सीता समी उत्तमसतीने रखडपट्टी थई वने, इर्ष्या तनुं, बनुं विश्ववत्सल, एक वांछित मनतणुं, आ पापमय... (१३)
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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