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नश्वर छतां संसारना, सुखो मने ललचावता. शाश्वत सुखोनी साधनाना स्वप्न पण कंपावता, फरी ना मळे संयोग काळ अनंतमां जाणुं छतां, हुं मस्त छु संसारमां, मुज केवी छे मोहांधता. (९)
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हुं साधनोमां मस्त बनीने साधना भूली गयो, बनवा अजन्मा जनम जे ते पण प्रमादे हारीयो, क्यारे थशे ! निस्तार जन्म-मरण थकी विभु माहरो ? कोने कहुं ने क्या ज़रूं? नथी अन्य माहरो आशरो (१०)
हुं पाप रसीयो तीव्र भावे पाप करता ना डरूं, ने आपनी आज्ञा प्रमाणे धर्म करता थरथरूं, थाशे शुं मारूं? जइश क्या हुं ? कर्म नवि छोडे कदा, एक ज सहारो ताहरो, तुं आपजे शरणुं सदा. (१५)
भोगोमही में वेडफ्यो मानव जनम अति दोहिलो, ना साधना करी मनथकी, शिवराज जेथी सोहिलो, तुज आण हैये ना घरी, करी मोहराजनी चाकरी, थाक्यो प्रभु माहरो हवे, उद्धार कर करूणा करी. (१२)
हुं ओरडो अवगुण तणो, भंडार चार कषायनो, वळी पंच इन्द्रिय विषय केरी वासना लंपट घणो, नथी पुण्य पण उद्यम करूं, भोगोतणी भूख भांगवा, दुर्बुद्धि मारी दूर करवा, आप तुं मुजने दवा (१३)
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