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________________ तत्रोषितं निधुवनाय समागतास्त्वां, देव्यः समं सहचरैः सुतनुं समीक्ष्य; वक्ष्यन्ति मोहिततरा इति कामरुपो, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ...१६ भावार्थ रतिक्रिडा माटे सखीओ साथे आवेली देवांगनाओ रैवतगिरि उपर वसेला सुतनुवाला तने जोइने अत्यंत मोहित थयेली आ प्रमाणे कहेशे के हे नाथ ! कामदेव समान रुपवाळो अवो तुं . जगतमां प्रकाश पाथरनारो अपूर्व दीपक छै. त्वद्ध्यानभाज्यपि पुनर्मयि नो गतायामिष्टार्थ बाधक बृहद्विरहांधकारम्; . सध्धर्मधाम्नि सहजोद्यमधौतदोष; सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ...१७ . भावार्थ हे जिन ! भले तुं योगिजनोनी कर्मरुपी रात्रिनो अंत लावनार होवाथी सूर्यथी पण विशेष प्रभावशाली हो परंतु ज्यां सुधी तुं मारा विरहरुपी अंधकारनो नाश करवा समर्थ नथी त्यां सुधी तने सूर्यथी चडियातो केम मार्नु ? वक्त्रं जिनात्र वसतः प्रणिधानभाजो, विश्वासतो मृगशिशुव्रजचुंबितं सत्; संदृश्यते बहुललक्षणभावितं ते, विद्योतयज्जगदपूर्व शशांकबिंबम् ...१८ ૧૬
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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