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________________ भावार्थ हे मारा नाथ ! निर्निमेष नयने तमने निहाळ्या पछी मारा नेत्रो बीजे क्यांय संतोष पामतां नथी. शुं चंद्रकिरणनी प्रभाळवाळा क्षीर समुद्रना जळनुं पान कर्या बाद लवण समुद्रना खारा जळनो आस्वाद लेवा कोइ इच्छे ? राज्ञो महामृगमदाकुलमंडलस्य, दैत्यारिमार्गगमनस्य तमोऽदितस्य; चक्षुष्य ! चारुचतुराक्षिगतस्य किञ्च, यत् ते समानमपरं न हि रुपमस्ति ...१२ भावार्थ हे सोभागी ! लांछनरुप हरणना कस्तूरी आदि सुगंधी द्रव्योथी व्याप्त मंडळवाळा, देवोना मार्गमां गमनवाळा, अंधकारथी खंडित नहीं थयेला तथा चतुरोनी आंख माटे मनोहर ओवा चंद्रनी समान जेम अन्य कोई रुप नथी तेम कुंजरोना मद वडे व्याप्त देशवाळा, कृष्ण तथा देवो जेना मार्गमां आगळं गमन करे, पाप वडे मुक्त तेमज मनोहर तथा चतुर ओवा जनोना दुश्मन स्वरुप तारा समान खरेखर अन्य कोईनुं रुप नथी. त्वत् सद्धियोग वनमेवगता तथापि, तीव्रातपोध्धत् पराभवभाविताऽहम्; 'शैवेय' ! देव ! जलजांकित ! जातमेतद् यद्वासरे भवति पांडु पलाशकल्पम् ...१३ ૧૪
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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