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श्री भावप्रभसूरिविरचितं । श्री नेमिभक्तामर स्तोत्रम् |
भक्तामर ! त्वदुपसेवन एव राजीमत्या ममोत्कमनसो दृढतापनुत् त्वम्; पद्माकरो वसुकलो वसुखोऽसुखार्ता; वालंबनं भव जले पततां जनानाम्... १
भावार्थ
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देवो पण जेना भक्तो छे ओवा हे देवाधिदेव ! स्वस्छ निर्मल जलपान द्वारा जेम पद्माकर तृषा श्री पीडितजनो माटे आधार छे, अमृतपान द्वारा जेम सुकलायुक्त चंद्र चकोर ने माटे आधार छे, विरह वेदनाथी पिडाता चक्रवाक मिथुनने माटे सूर्य आधार छे, वळी उन्मार्गे चाली भवसमुद्रमां पडता जीवोनो तुं जेम आधार छे तेम तारी सेवना माटे सदा उत्कंठित चित्तवाळी (राजीमती) नो तुं आधार था !
पित्रोर्मुदे सह मयोपयमं यदीन्द्र नोरीकरिष्यसि तदा तव काऽत्र कीर्तिः ? जग्राह यो हि गृहिकर्म विधाय वृत्तं, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ...२
भावार्थ
हे नाथ ! जो तुं माता- पिताना हर्षनी खातर मारी साथे लग्न करीश नहि तो आ जगतमां तारी शी आबरु ? प्रथम गृहस्थधर्मनो स्वीकार करीने दीक्षा लीधी छे ओवा प्रथम जिनेश्वर ऋषभदेवनी हुं स्तुति करीश. (परंतु गृहस्थ धर्मनो स्वीकार कर्या विना दीक्षा ग्रहण करवानुं अनुचित कार्य करनार तारी स्तुति हुं नहीं करूं.
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