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in सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षट्त्रिंश अध्ययन [524]
अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं।
विजढंमि सए काए, पुढवीजीवाण अन्तरं॥८२॥ अपने काय (पृथ्वीकाय) को एक बार छोड़कर (दूसरे अन्य कायों में उत्पन्न होने-जन्म-मरण करने के पश्चात्) पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने का अन्तर (अन्य कायों में बिताया हुआ कालमध्यवर्ती अन्तराल) उत्कृष्ट अनन्त काल और जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है। ८२॥
___ The maximum intervening period between once leaving the body-type (earth-body), (taking rebirth in other body-types and moving in cycles of rebirth as other body types) and again taking rebirth in the same body-type (earth-body) is infinite time and the minimum is one Antarmuhurt. (82)
एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ।
संठाणादेसओ वा वि, विहाणाई सहस्ससो॥८३॥ ये पृथ्वीकायिक जीव वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा संस्थान के आदेश (अपेक्षा) से भी हजारों प्रकार के होते हैं॥ ८३॥
These earth-bodied beings are also of thousands of kinds with regard to colour, smell, taste, touch and constitution. (83) अपकाय की प्ररूपणा
दुविहा आउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा।
पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो॥ ८४॥ __ अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं-(१) सूक्ष्म, और (२) बादर। पुनः इन दोनों प्रकारों के दो-दो भेद और होते हैं-(१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त ॥ ८४॥ .. Water-bodied beings
Water-bodied beings are of two kinds-(1) minute, and (2) gross. These two are also of two types each-(1) fully developed (paryaapt), and (2) under-developed (aparyaapt). (84)
बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया।
सुद्धोदए य उस्से, हरतणू महिया हिमे॥८५॥ जो पर्याप्त बादर अप्कायिक जीव हैं, वे पाँच प्रकार के बताये गये हैं, यथा-(१) शुद्धोदक-शुद्ध जल, (२) उस्स-ओस, (३) हरतणु-गीली, (आर्द्र) भूमि से उत्पन्न वह पानी जो प्राप्त:काल तृण के अग्र भाग पर बिन्दु के रूप में दृष्टिगोचर होता है, (४) महिका-कुहासा, कोहरा, और (५) हिम-बर्फ॥ ८५ ॥
Fully developed gross water-bodied living beings are said to be of five types – (1) pure water, (2) dew, (3) exudations, (4) fog, and (5) ice. (85)
एगविहमणाणत्ता, सुहमा तत्थ वियाहिया।
सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा॥८६॥ नानात्व (अनेकता) से रहित सूक्ष्म अप्कायिक जीव एक ही प्रकार के हैं और वे समस्त लोक में व्याप्त (भरे हुए) हैं; लेकिन बादर अप्कायिक जीव लोक के एक देश (विभाग) में ही हैं। ८६॥