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________________ [505] षट्त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीव-विभक्ति पूर्वालोक प्रस्तुत छत्तीसवाँ अध्ययन इस सूत्र का अन्तिम अध्ययन है। इसका नाम जीवाजीव-विभक्ति है। नाम के अनुरूप इस अध्ययन में जीव और अजीव की विभक्ति-दोनों को पृथक्-पृथक् करके उनको सम्यक् रूप से निरूपित किया गया है। लोक में जीव और अजीव-ये दो ही मूल तत्त्व इन्हीं के संयोग-वियोग का परिणाम हैं। - जीव और अजीव (रूपी-अजीव-पुदगल) का अनादि संयोग सम्बन्ध है। लेकिन तप-संयम आदि की साधना के द्वारा इस सम्बन्ध को सदा के लिए विच्छिन्न किया जा सकता है तब जीव शुद्ध रूप-अपना निज रूप प्राप्त कर लेता है और पुद्गल से सम्पूर्णतया विमुक्त होकर सिद्ध बन जाता है। जब तक जीव के साथ अजीव (कर्म पुद्गलों) का सम्बन्ध रहता है तभी तक शरीर, इन्द्रियों, मन आदि की रचना होती है। जीव में ममत्व मूर्छा का अस्तित्व रहता है, पर-द्रव्यों, भौतिक पदार्थों के प्रति उसका आकर्षण रहता है, यही जीव की वैभाविक प्रवृत्ति है, जो राग-द्वेष, संकल्प-विकल्पों के माध्यम से प्रकट होती है और यही जीव का संसार है जिसमें वह अनादिकाल से परिभ्रमण करता आ रहा है। जीव का अजीव से पृथक्करण मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक है। इसी पृथक्करण को भेदविज्ञान कहा जाता है। भेदविज्ञान होते ही जीव स्वयं को पुद्गल से, कर्मों और नोकर्मों से अलग समझने लगता है। भेदविज्ञान का पूर्ण विश्वास होते ही सम्यग्दर्शन हो जाता है, ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है और जीव अपनी आत्मा और आत्मिक गुणों में रमण करने लगता है, यही सम्यक् चारित्र है। संयम-चारित्र की पूर्ण निर्मलता और समग्रता ही जीव की मुक्ति है। अजीव का जीव से पृथक्करण इष्ट होने से ही प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम अजीव का निरूपण किया गया है। जीव की शुद्ध दशा की प्रतीति कराने के लिए पहले सिद्धों का विस्तृत वर्णन करने के बाद संसारी जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अन्त में संयम-पालन की प्रेरणा दी गई है। आराधक बनने के लिए संलेखना, संथारा और समाधिमरण का प्रतिपादन किया गया है। कन्दी आदि पाँच भावनाओं, मिथ्यात्व, निदान, हिंसा, कृष्ण आदि अधर्म लेश्याओं से बचकर सम्यक्त्व, शुक्लध्यान, जिन वचनों में अनुराग आदि तथा आत्म-शुद्धि करके परीत्त संसारी और मोक्ष-प्राप्ति की सुन्दर प्रेरणा दी गई है। प्रस्तुत अध्ययन इस सूत्र में सबसे बड़ा है। इसमें २६८ गाथाएँ हैं।
SR No.002494
Book TitleAgam 30 mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages726
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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