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[475] त्रयस्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्रनी
दान देने वाला भी है, देय वस्तु भी है, दान के फल को भी जानता है, फिर भी दान में प्रवृत्ति न होना, दानान्तराय है।
उदार दाता के होने पर भी याचना निपुण याचक कुछ भी न पा सके, यह लाभान्तराय है। धन वैभव और अन्य वस्तु के होने पर भी तिनका तोड़ने जैसी भी क्षमता-शक्ति का न होना वीर्यान्तराय
इनके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि अनेक भेद हैं।
गाथा १७-एक समय में बँधने वाले कर्मों का प्रदेशाग्र (कर्मपुद्गलों के परमाणुओं का परिमाण) अनन्त है। अर्थात् आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर एक समय में अनन्तानन्त परमाणुओं से निष्पन्न कर्मवर्गणायें श्लिष्ट होती हैं। . ये अनन्त कर्मवर्गणायें अनन्तानन्त अभव्य जीवों से अनन्तगुणा अधिक और अनन्तसंख्यक सिद्धों के अनन्तवें भाग होती हैं। अर्थात् एक समय में बद्ध अनन्त कर्मवर्गणाओं से सिद्ध अनन्तगुणा अधिक हैं।
ग्रन्थिकसत्व का अर्थ है अभव्य जीव। अभव्यों की राग-द्वेषरूप ग्रन्थि अभेद्य होती है, अत: उन्हें ग्रन्थिक अथवा ग्रन्थिकसत्व (जीव) कहा है।
गाथा १८-पूर्व आदि चार, और ऊर्ध्व एवं अधः ये छह दिशायें हैं। जिस आकाश क्षेत्र में जीव अवगाढ़ है, रह रहा है वहीं के कर्मपुद्गल रागादि भावरूप स्नेह के योग से आत्मा में बद्ध हो जाते हैं। भिन्न क्षेत्र में रहे हुए कर्मपुद्गल वहाँ से आकर आत्मा को नहीं लगते।
ईशान आदि विदिशाओं के भी कर्मपुद्गल बँधते हैं पर विदिशायें दिशाओं में गृहीत हो जाने से यहाँ अविवक्षित हैं। ___ यह छह दिशाओं का कर्मबन्ध सम्बन्धी नियम द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवों को लक्ष्य में रखकर बताया गया है। एकेन्द्रिय जीवों के लिये तो कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच और कभी छह दिशाओं का उल्लेख है।
ज्ञानावरणादि सभी कर्म आत्मा के सभी असंख्यात प्रदेशों से बँधते हैं, अमुक प्रदेशों पर ही नहीं। आत्मा के प्रदेश बुद्धिपरिकल्पित हैं, पुद्गल की तरह मिलने-बिछुड़ने वाले परमाणु जैसे नहीं।
गाथा १९-२०-प्रस्तुत में वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त ही बतायी गई है, जबकि अन्यत्र १२ मुहूर्त का उल्लेख है। टीकाकार कहते हैं, इसका क्या अभिप्राय है, हम नहीं जानते। “तदभिप्राय न विद्मः।"
(सन्दर्भ-उत्तराध्ययनसूत्र : साध्वी चन्दना जी)