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[457] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
How can a man derive happiness on account of love and fondness for pleasant touch while he creates, protects, associates (trades and exchanges), expends and loses the same things that enhance pleasant touch). Even when he enjoys them he feels unsatisfied, does not ever experience satiety. (80)
फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुष्टुिं।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ८१॥ स्पर्श में अतृप्त तथा परिग्रह में प्रगाढ़ रूप से आसक्त को संतुष्टि प्राप्त नहीं होती। असन्तुष्टि के दोष से दुःखित और लोभाविष्ट होकर वह दूसरों की बिना दी हुई (अदत्त) वस्तु को चुरा (ग्रहण कर) लेता है॥ ८१॥
A person, not satiated with pleasant touch and intensely obsessed with acquiring that, never gains satisfaction. Aggrieved with the drawback of discontentment and overwrought by greed, such person takes belongings of others without being given (steals). (81)
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य।
मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥८२॥ तृष्णा से अभिभूत तथा अदत्त का हरण करने वाला एवं स्पर्श में और परिग्रह में अतृप्त व्यक्ति के लोभ दोष के कारण छल-कपट तथा मृषावाद-झूठ बढ़ जाते हैं लेकिन छल करने और झूठ बोलने से भी उसका दुःख नहीं मिटता ।। ८२॥
Overwhelmed by craving, the thief of others' belongings, not satiated with pleasant touch and possessions finds that his deceit and lies continue to multiply due to his vice of greed; however, he still (in spite of employing deceit and lie) fails to be emancipated from miseries. (82)
मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते। • एवं अदत्ताणि समाययन्तो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥८३॥ मिथ्या बोलने से पहले, उसके पश्चात् तथा मिथ्या बोलते समय भी वह दुःखी होता है और उसका अन्त (परिणाम) भी दुःखपूर्ण होता है। इस प्रकार अदत्त ग्रहण का आचरण करता हुआ वह स्पर्श में अतृप्त दुःखी और निराश्रित हो जाता है॥ ८३॥
He becomes sorrowful before, after and even while telling a lie and the consequences of the act too are painful. Thus the person indulging in theft and also not satiated with pleasant touch, becomes miserable and without refuge. (83)
फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?
तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥८४॥ इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त (सदैव रचे-पचे रहने वाले) व्यक्ति को किंचित् मात्र, कभी भी, कैसे सुख की प्राप्ति हो सकती है? जिसके लिए दुःख सहा जाता है उसका उपभोग करते समय भी दुःख और क्लेश (का अनुभव) ही होता है। ८४॥