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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [456]
One who is infatuated with pleasant touch is plagued by attachment to end up in untimely ruin, just as a buffalo, obsessed by touch (touch of cold water), is caught by a crocodile. (76) - जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं।
दुइन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि फासं अवरज्झई से॥७७॥ जो अमनोज्ञ स्पर्श में तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी तत्काल उसी क्षण अपने ही दुर्दमनीय दोष के कारण दुःख पाता है। इसमें स्पर्श का कुछ भी अपराध या दोष नहीं है॥ ७७॥
Contrary to this, he who is intensely averse (to unpleasant touch) instantly suffers pain due to his own insurmountable aversion. There is no fault of touch (pleasant or unpleasant) in this. (77)
एगन्तरत्ते रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥७८॥ जो रुचिर (सुखद रुचिकर) स्पर्श में अत्यधिक आसक्त होता है तथा इसके विपरीत अरुचिकर-असुखद स्पर्श के प्रति प्रद्वेष (विशेष द्वेष) रखता है, वह अज्ञानी दुःखजनित पीड़ा को प्राप्त करता है तथा विरागी मुनि (सुखद और दु:खद दोनों प्रकार के स्पर्शों में राग-द्वेष न करके) उनमें लिप्त नहीं होता ॥ ७८॥
He who gets exclusively and excessively infatuated with pleasant touch is averse to repulsive touch. That ignorant suffers pain. But the detached ascetic does not get involved in them (pleasant and unpleasant touch), does not have attachment or aversion for them. (78)
फासाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥७९॥ (मनोज्ञ) स्पर्श की प्राप्ति की आशा का अनुगमन करने वाला अनेक प्रकार के चर-अचर (त्रस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने स्वार्थ को गुरुतर (सर्व प्रमुख) मानने वाला वह राग-द्वेष से पीडित-क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन जीवों को परिताप देता है और पीडित करता है॥ ७९ ॥
A person hankering for pleasant touch indulges in violence towards mobile and immobile beings many ways. Giving importance to his self-interest and tarnished with attachment and aversion, an ignorant being torments those beings various ways. (79)
फासाणुवाएण परिग्गहेण, उप्यायणे रक्खणसन्निओगे।
वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥८०॥ मनोज्ञ स्पर्श के प्रति अनुरक्ति और परिग्रह के प्रति ममत्व होने से उसके उत्पादन, सुरक्षा और व्यवस्था (सन्नियोग) में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? तथा उपभोग करते समय भी तृप्ति का लाभ नहीं होता ॥ ८०॥