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[373 ] एकोनत्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
का परित्याग करता है। आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसार-मार्ग का विच्छेद करता है तथा सिद्धि-मार्ग को प्राप्त करता है।
Maxim 3 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) obtain by disgust for the mundane (nirved)?
(A). Through disgust for the mundane a being soon develops apathy for carnal pleasures related to divine, human and animal beings. He becomes apathetic to all sensual indulgence. On being apathetic to all sensual indulgence he avoids all sinful activities. While renouncing sinful activities he shears the path of worldly existence through cyclic rebirths (samsar) and embraces the path of liberation.
सूत्र ४-धम्मसद्धाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ। अगारधम्मं च णं चयइ। अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वाबाहं च सुहं निव्वेत्तइ॥ .
सूत्र ४-(प्रश्न) भगवन् ! धर्म-श्रद्धा से जीव को क्या उपलब्ध होता है?
(उत्तर) धर्म-श्रद्धा से जीव (साता वेदनीय कर्म से प्राप्त) साता-सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है। अगार धर्म (गृहस्थ धर्म) का त्याग करता है। अनगार बनकर जीव छेदन-भेदन आदि शारीरिक तथा संयोग आदि मानसिक दु:खों का विच्छेद (विनाश) कर देता है और अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है।
Maxim 4 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) obtain by faith in religion · (dharmashriddha)?
(A). By putting faith in religion, a being becomes indifferent to fondness for earthly pleasures (gained due to pleasant-feeling-evoking karmas). He renounces the duties of a householder. By becoming a homeless ascetic, he ends physical and mental miseries, including those from cutting, piercing and association (with unpleasant things) to attain unrestricted bliss.
सूत्र ५-गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्तिं जणयइ। विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देव-दोग्गईओ निरुम्भइ। वण्ण-संजलण भत्ति-बहुमाणयाए मणुस्स-देवसोग्गईओ निबन्धइ, सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ।
पसत्थाइं च णं विणयमूलाइं सव्वकज्जाइं साहेइ। अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ॥ सूत्र ५-(प्रश्न) भगवन् ! गुरु तथा साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव क्या (फल) प्राप्त करता है?
(उत्तर) गुरु तथा साधर्मिक की शुश्रूषा (सेवा) करने से जीव विनय प्रतिपत्ति को प्राप्त करता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवाद आदि रूप आशातना नहीं करता। इससे वह नरक, तिर्यंच योनि और देव-मनुष्य संबंधी दुर्गति का निरोध कर देता है। वर्ण (श्लाघा), संज्वलन (गुणों का प्रकाशन), भक्ति और बहुमान से मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति का बन्ध करता है और श्रेष्ठ गति