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[221] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र और उनकी रानी मृगावती के सुपुत्र युवराज मृगापुत्र के नाम पर निर्धारित किया गया है। युवराज का नाम बलश्री था किन्तु मृगापुत्र नाम से वह अधिक विश्रुत था ।
पिछले अध्ययनों से इस अध्ययन में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें नरक और नरक के दुःखों का अनुभूत वर्णन हुआ है।
एक बार युवराज मृगापुत्र अपने महल के गवाक्ष में बैठा नगर की चहल-पहल देख रहा था । उसकी दृष्टि में एक मुनि आते हैं। मुनि के तेजस्वी ललाट और तपस्या से कृश दुर्बल शरीर को देखकर उसका चिन्तन गहरा होता है, उसे जातिस्मरण ज्ञान (पिछले जन्मों का ज्ञान) हो जाता है कि पिछले जन्म में मैं भी इसी प्रकार एक श्रमण था ।
बस, पूर्व जन्म की स्मृति के कारण उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। माता-पिता से दीक्षा की अनुमति माँगता है। माता-पिता के यह कहने पर कि श्रमणाचार का पालन करना तलवार की धार पर चलना है। उत्तर में मृगापुत्र बताता है कि मेरी आत्मा ने नरकों में ऐसे कष्ट भोगे हैं, जिनका शतांश भी इस मानव-लोक में नहीं है ।
और फिर वह नरक के दुःखों का वर्णन करता है। यह वर्णन इतना सजीव, रोमांचकर और भयप्रद है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नारकीय यातनाओं को पढ़कर शरीर में सिहरन भर जाती है, हृदय काँपने लगता है। (चित्र देखें)
माता-पिता अपने पुत्र को दीक्षित होने से रोकने का अन्तिम प्रयास करते हैं कि श्रमणत्व धारण करने के पश्चात् यदि कोई रोग हो जाता है तो उसकी चिकित्सा नहीं कराई जाती ।
मृगापुत्र इसका यथातथ्य उत्तर देता है कि वन में मृगों के रोगी होने पर उनकी चिकित्सा भी कोई नहीं कराता, वे स्वयं ही स्वस्थ जाते हैं। मैं भी मृगचर्या करूँगा ।
पुत्र के दृढ़ संकल्प और तीव्र वैराग्य को जानकर माता-पिता ने दीक्षा की अनुमति दे दी । दीक्षित होकर मृगापुत्र ने उत्कृष्ट तप:साधना करके मुक्ति प्राप्त की ।
प्रस्तुत अध्ययन में ९९ गाथाएँ हैं ।
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