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855555555555555555555555555555555555558 म [उ.] हंता, उववज्जेज्जा। एवं चेव। नवरं इमं नाणत्तं-जाव सन्निहियपाडिहेरे , * लाउल्लोइयमहिए यावि भवेज्जा।
हता, भवेज्जा। सेसं तं चेव जाव अंतं करेज्जा।
४. [प्र.] भगवन्! महर्द्धिक यावत् (महासुख वाला देव च्यव कर क्या) द्विशरीरी वृक्षों में उत्पन्न होता है?
[उ.] हाँ, गौतम! उत्पन्न होता है। इसी प्रकार (पूर्व की भाँति सारा कथन जानना चाहिए); म मात्र विशेषता इतनी है कि (वह जिस वृक्ष में उत्पन्न होता है, वह अर्चित होने के साथ-साथ) के यावत् सन्निहित प्रातिहारिक होता है तथा उस वृक्ष की पीठिका (चबूतरा आदि) गोबर आदि से में लीपी हुई और खड़िया मिट्टी आदि द्वारा पोती हुई होती है जिस कारण वह महित (पूजित) होता 卐 है। शेष समस्त कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् वह (मनुष्य-भव धारण करके) संसार का ऊ अन्त करता है। .
. 4. [Q.] Bhante ! In the same way does a god with great opulence (... and so on up to... great happiness descend and) take birth among two-bodied (destined to be liberated after two births) Trees?
(Ans.) Yes, Gautam ! It does. Just as aforesaid; the difference is that besides getting adored... and so on up to... providing protection, its base (platform) is smeared with cow-dung and plastered with clay inspiring worship. Rest of the statement as aforesaid... and so on up to... (gets reborn as human and) end all miseries.
विवेचन-प्रस्तुत चार सूत्रों में महर्द्धिक देवों की नाग आदि भव में उत्पत्ति, महिमा एवं सिद्धि आदि के विषय में चर्चा की गई है।
ये देव द्विशरीर वाले होते हैं। अर्थात्-एक शरीर (नाग आदि का भव) छोड़कर तदनन्तर दूसरे में शरीर यानि मनुष्य शरीर को प्राप्त करते हैं जिससे वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं।
ये महर्द्धिक देव नाग, मणि अथवा वृक्ष के भव में भी देवाधिष्ठित होते हैं अर्थात् वे इन भवों में के से जिस क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, वहाँ उनकी अर्चना, वन्दना, पूजा, सत्कार और सम्मान होता है। वे
दिव्य, प्रधान, सत्य स्वप्नादि द्वारा सच्चा भविष्य कथन करने वाले होते हैं उनकी सेवा सत्य-सफल में होती है, क्योंकि वे पूर्व सगतिक प्रातिहारिक (प्रतिक्षण पहरेदार की तरह रक्षक) होकर उनके
सन्निहित-अत्यन्त निकट रहते हैं और जो वृक्ष होता है, वह भी देवाधिष्ठित, विशिष्ट और बद्धपीठ होता % है। जनता उसकी महिमा, पूजा आदि करती है और उसकी पीठिका (चबूतरे) को लीप-पोत कर में स्वच्छ रखती है।
| बारहवां शतक : अष्टम उद्देशक
दशक
(377)
Twelfth Shatak : Eigth Lesson
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