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[२८] तब शिवराजर्षि बहुत-से लोगों से यह बात सुनकर तथा हृदयंगम करके शंकित, कांक्षित, संदिग्ध, अनिश्चित और कलुषित भाव को प्राप्त हुए।
28. Hearing and understanding all this from people, Saint-king Shiva's mind was filled with doubt (shankit), desire for other faith + (kankshit), incredulity (vichikitsa yukt), disjunction (bhed samapann), and spite (kalush samapann). .
२९. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव कलुससमावन्नस्स से विभंगे अन्नाणे खिप्पामेव परिवडिए।
[२९] तब शंकित, कांक्षित यावत् कालुष्ययुक्त बने हुए शिवराजर्षि का वह विभंग-अज्ञान के तुरन्त ही पतित (नष्ट) हो गया।
29. Then filled with doubt (shankit), desire for other faith (kankshit),... and so on up to... spite (kalush samapann), Saint-king Shiva at once lost his pervert knowledge.
विवेचन-शिवराजर्षि के प्राप्त ज्ञान की वास्तविकता से लोगों को जब भगवान महावीर ने परिचित कराया तो लागों के मुख से यह बात सुनकर शिवराजर्षि को शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि उत्पन्न हुई। इस कारण उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। (१. भगवती, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १८९२)
Elaboration-Bhagavan Mahavir conveyed to the people the true story of the pervert knowledge gained by Saint-king Shiva. Hearing about that, he was filled with doubt etc. on what he had gained and considered to be the ultimate knowledge. This doubt freed him of his belief on pervert knowledge. (Bhagavati commentary (Vivechan) by Pt. Ghewarchand, part-4, p. 1892) शिवराजर्षि द्वारा निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या स्वीकार और मुक्ति प्राप्ति INITIATION OF SAINT-KING SHIVA AS NIRGRANTH
३०. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था"एवं खलु समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगणं चक्केणं जाव सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ। तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नाम-गोयस्स जहा उववाइए जाव गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवासामि। एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सइ त्ति कटु एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, ते. उ. २ तावसावसहं अणुप्पविसइ, ता. अ. २ सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकाइयगं च गेण्हइ, गे. २ तावसावसहाओ पडिनिक्खमइ, ता. प. २ परिवडियविब्भंगे हत्थिणापुरं नयरं मज्झंमज्झेणं
| भगवती सूत्र (४)
(132)
Bhagavati Sutra (4)