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विवेचन - द्वीप - समुद्रगत द्रव्यों में वर्णादि की परस्पर सम्बद्धता - प्रस्तुत पाँच सूत्रों (२२ से २६ तक) में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि समस्त द्वीप - समुद्रों में वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्शादि से रहित और सहित फ द्रव्यों की परस्पर बद्धता, गाढ़ श्लिष्टता, स्पृष्टता एवं अन्योन्य सम्बद्धता का प्रतिपादन किया गया है।
सवर्णादि एवं अवर्णादि का आशय - वर्णादि सहित का अर्थ है- पुद्गल द्रव्य तथा वर्णादि-रहित का आशय है-धर्मास्तिकाय आदि । अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठति - परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।
Elaboration These five statements establish the close and intimate inter-relationship of substances with and without attributes of colour, smell, taste etc.
With and without attributes-With attributes indicates matter and without attributes means entities like space (Akashastikaaya etc.). Annannaghadattaaye chitthanti-they exist in mutually interconnected state.
भगवान से सत्य सुनकर जनता द्वारा प्रचार PUBLICITY OF THE TRUTH TOLD BY BHAGAVAN २७. तए णं हत्थिणापुरे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ - "जं णं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ-अत्थि गं देवाप्पिया ! ममं अइसेसे नाणे जाव समुद्दा य", तं णो इणट्ठे समट्ठे । समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छट्ठछट्ठेणं तं चेव जाव भंडनिक्खेवं करेइ, भंडनिखेवं करेत्ता हत्थिणापुरे नयरे सिंघाडग जाव समुद्दा य। एणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म जाव समुद्दा य, तं णं मिच्छा । समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खड़ - एवं खलु जंबुद्दीवाईया दीवा लवणाईया समुद्दा तं चेव जावं असंखेज्जा दीव-समुद्दा पण्णत्ता समणाउसो ! ।
[२७] हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक यावत् मार्गों पर बहुत से लोग परस्पर इस प्रकार कहने यावत् (एक दूसरे को ) बतलाने लगे - "हे देवांनुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता - देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप- समुद्र बिल्कुल नहीं हैं; उनका यह कथन मिथ्या है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि निरन्तर बेले-बेले का तप करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है। विभंगज्ञान उत्पन्न होने पर वे अपनी कुटी में आए यावत् वहाँ से तापस आश्रम में आकर अपने तापसोचित उपकरण रखे और हस्तिनापुर के श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों पर स्वयं को अतिशय ज्ञानी होने का दावा करने लगे। लोग उनके मुख से ) ऐसी बात सुन परस्पर तर्क-वितर्क करते हैं - " क्या शिवराजर्षि का
यह कथन सत्य है ? परन्तु मैं कहता हूँ कि उनका यह कथन मिथ्या है।" श्रमण भगवान महावीर
भगवती सूत्र (४)
(130)
Bhagavati Sutra ( 4 )
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