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________________ विवेचन : बीज को अंकुरित, पुष्पित और फलित होने के लिए आवश्यक है कि उसे उर्वर र भूमि की गोद प्राप्त हो। बंजर भूमि में डाला गया बीज निर्बीज होकर नष्ट हो जाता है। इसी तरह जीवन में साधनात्मक विकास के लिए आत्मभूमि का उर्वर होना आवश्यक है। 'विनयभाव' आत्मा की उर्वरता है। विनय गुण से सम्पन्न व्यक्ति शीघ्र ही आत्मविकास करता हुआ परमात्म रूप का अधिकार प्राप्त कर लेता है। ___'गुरु' विनय के प्रधान केन्द्र हैं। अनन्त जीवन-पथ पर गुरु ही वह प्रथम सत्ता होती है जो जीव के भीतर दबे पड़े ज्ञान के स्रोत को जागृत करती है। गु अर्थात् अन्धकार, रु अर्थात् रोकने वाला। अज्ञान रूपी अन्धकार के निरोधक होने से उन्हें 'गुरु' कहा जाता है। आवश्यक (प्रतिक्रमण) आराधना आत्मशुद्धि का उपक्रम है। गुरु की कृपा के बिना आत्मशुद्धि संभव नहीं है। इसलिए यहां सर्वप्रथम भावभरे शब्दों में गुरु को वन्दन किया गया वन्दन-सूत्र में आए हुए 'वंदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि' इन चार पदों का अर्थ इस प्रकार है1. वंदामि - वन्दन करता हूं। वन्दन का अर्थ है स्तुति करना, वचन से गुणगान करना। 2. नमसामि - नमस्कार करता हूं। नमस्कार का अर्थ है देह से झुककर, विनत होकर गुरु-चरणों में मस्तक रखना। 3. सक्कारेमि - सत्कार करता हूं। सत्कार का अर्थ है-अभ्युत्थानपूर्वक अर्थात् खड़े होकर गुरु महाराज का सत्कार करना। 4. सम्माणेमि - सम्मान करता हूं। अन्न, वस्त्र आदि अर्पित करना सम्मान कहलाता pyakskskskskestastesskskskskskesathsale.sleeplesske alakaake also skatreekansaksdeskskaalesalese drakeskele sakshe skeseka.ske.slesha sakese kesakesta skesaheshkkkER कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं-इन पदों का अर्थ निम्नरूपेण है1. कल्लाणं - कल्याणरूप। कल्य का अर्थ है मोक्षा मोक्ष के हेतु को कल्याण कहा जाता है। 2. मंगलं - मंगलरूप। शाश्वत शुभ को मंगल कहते हैं। अथवा जो समस्त प्राणियों के लिए हितकारक हो एवं जन्म-मरण रूप संसार-सागर से पार ले जाने वाला हो, उसे मंगल कहा जाता है। प्रथम अध्ययन : सामायिक //6 // Avashyak Sutra
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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