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भी उसके हृदय और आनन पर विराजमान रहती है। संसारी को मृत्यु बलात् खींचकर ले जाती है जबकि साधक संलेखना के माध्यम से मृत्यु से गुजरता है। संलेखना 'मृत्यु महोत्सव' की महान विधि है। यूं तो साधक दिवसान्त और निशान्त-इन दोनों संध्याओं में प्रतिदिन अपने दोषों का निरीक्षण और प्रक्षालन करता है, परन्तु जीवनान्त पर की जाने वाली संलेखना के माध्यम से वह समग्र जीवन में लगे हुए दोषों का विहंगम दृष्टि से निरीक्षण और प्रक्षालन करता है। इसीलिए इसे 'अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना' कहा गया है।
पश्चिम का अर्थ है-अस्त होना। अपश्चिम का अर्थ है-ऐसा अस्त, जिसके पश्चात् पुनः अस्त न होना पड़े। अर्थात् ऐसा मरण जिसके पश्चात् पुनः मरना न पड़े।
धर्म-साधना हेतु मानव-शरीर सर्वश्रेष्ठ साधन है। जैन श्रमण धर्म-साधना में शरीर का पूर्ण उपयोग करता है। साधना करते-करते शरीर जब शिथिल हो जाता है, भारस्वरूप प्रतीत होने लगता है, तब मृत्यु को सन्निकट जानकर साधक विशेष आराधना हेतु तैयारी करता है। उसी तैयारी का नाम संलेखना है। ___ सम्यक् प्रकार से आलेखन-आत्मावलोकन-आत्मालोचन का नाम है संलेखना। संलेखना की संपूर्ण विधि सूत्र के मूल पदों में ही स्पष्ट है। उक्त विधि के अनुसार संपूर्ण तैयारी के साथ साधक मृत्यु की आकांक्षा एवं जीवन की अनाकांक्षा, अथवा जीवन की आकांक्षा एवं मृत्यु की अनाकांक्षा से मुक्त होकर समाधि भाव में तल्लीन हो जाता है। समाधि की उस बेला में अनादिकालीन कर्म-राशि जलकर भस्मीभूत हो जाती है। उत्कृष्ट समाधि-भावों में विहार करते हुए साधक नश्वर देह का विसर्जन कर देता है। ____ आत्मकल्याण के अभिप्सु प्रत्येक साधक के हृदय में संलेखना की अभिप्सा होती है। उसी अभिप्सा के कारण वह प्रतिदिन दोनों संध्याओं में 'अपश्चिम मारणांतिक संलेखना' की स्वाध्याय करता है और कामना करता है कि जीवनान्त की बेला में उसे संलेखना की स्पर्शना का सुअवसर प्राप्त हो।
Exposition: The entire life of a Jain mendicant is that of spiritual practice. He remains absorbed meticulously in practice of major vows and supplementary vows right from the very moment of initiation in monkhood upto the very fag end of his life. Just as a nobleman always remains engaged in protection of his wealth and its further development, similarly Shraman remains engaged and is meticulously careful in practice of his vows, and developments of virtues of his self. In case any deviation occurs in the practice of his vows, he immediately sets it right through pratikraman, self-criticism and atonement. Through continuous self-purifications the Jain monk आवश्यक सूत्र
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6th Chp.: Pratyakhyan
लेता है।