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स्वाध्याय एवं काल- प्रतिलेखना सूत्र
पडिक्कमामि चउकालं सज्झायस्स अकरणयाए, उभओ कालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए, दुप्पडिलेहणाए, अप्पमज्जणाए, दुप्पमज्जणाए, अइक्कमे, वइक्कमे, अइयारे, अणायारे, जो मे देवसी अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
भावार्थ : स्वाध्याय एवं प्रतिलेखना संबंधी दोषों की निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करता हूं। दिन और रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहरों - अर्थात् चारों कालों में यदि स्वाध्याय न किया हो, उभय काल (दिन के प्रथम और अंतिम- इन दो प्रहरों) में भाण्ड, उपकरण, वस्त्र, पात्र आदि की प्रतिलेखना न की हो अथवा प्रमादवश उचित विधि से प्रतिलेखना न की हो, वस्त्रादि का प्रमार्जन न किया हो, अथवा उचित विधि से प्रमार्जन न किया हो, फलस्वरूप अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के कारण जो भी दिवस संबंधी पाप मुझे लगा हो, उससे मैं पीछे हटता हूं। मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
Exposition: I critically examine myself in order to wash off faults relating to study and proper examination of article of use. I may not have engaged myself in study of scriptures in the first and last quarter of the day and of the night and then I may not have properly examined discriminately the cloth, pot and other article, which I use. I may not have cleaned them properly as prescribed in the code. As a result of transgression in mind or action I may have committed any faults during the day. I withdraw myself from them.
विवेचन : साधु के लिए यह नियम है कि वह दिन और रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय करे। इस प्रकार दिन-रात्रि के कुल आठ प्रहरों में से चार प्रहर स्वाध्याय करना श्रमण का आचार है।
इसी प्रकार दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में संयम के लिए उपयोगी वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि की प्रतिलेखना का विधान है। काल के काल स्वाध्याय और प्रतिलेखना साधु के लिए आवश्यक है। प्रस्तुत सूत्र से प्रमाद वश स्वाध्याय और प्रतिलेखना में उत्पन्न दोषों की शुद्धि की गई है।
Explanation: It is laid down for a Jain monk that in the first and last quarter of the day and of night he should engage himself in study or revision of scriptures. Thus it is essential for the monk to study scripture in four quarters out of eight quarters of day and night.
आवश्यक सूत्र
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IVth Chp. : Pratikraman