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________________ द्वितीय अध्ययन : चतुर्विंशति-स्तव asalenlesterste she tasterstudieslesslesslesslesslesalesslesslelesslestendesekseesdesseskosesslesalesesslesslesdesesaksesolesalesslesalesalesales आमुख : ___ आवश्यक सूत्र का द्वितीय चरण है-चतुर्विंशति-स्तव अर्थात् चौबीस तीर्थंकर-भगवंतों की स्तुति। प्रथम आवश्यक में सामायिक का विधान है। समता भाव की परिपक्वता के लिए किसी शुभ आलम्बन की आवश्यकता होती है। चतुर्विंशति-स्तवः सर्वश्रेष्ठ शुभ आलम्बन है। चतुर्विंशति स्तव में वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से लेकर - अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान महावीर स्वामी पर्यंत चौबीस जिनदेवों की भावपूर्ण स्तुति की गई है। ये चौबीस ही अर्हत् पुरुष अध्यात्म जगत के पूज्य-पुरुष हैं। समस्त श्रेष्ठताएं इनके जीवन में सर्वांगीण रूप में पुष्पित और फलित हुईं। क्षेत्र और काल की दृष्टि से चौबीसों तीर्थंकर अलंग-अलग क्षेत्र और काल में हुए, परन्तु ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की दृष्टि से चौबीसों तीर्थंकर अभिन्न हैं, समरूप हैं। सच्चे हृदय से की गई स्तुति से स्तुत्य (स्तुति के योग्य) के सद्गुण स्तोता (स्तुति करने वाले) के जीवन में उतर आते हैं। स्तुत्य का जीवन दर्शन स्तोता का जीवन दर्शन बन जाता है। प्र. चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ? __प्रभु! चतुर्विंशति स्तव से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उ. चउव्वीसत्थएणं दंसण विसोहिं जणयइ। ___ गौतम! चतुर्विंशति स्तव से जीव को दर्शन शुद्धि का लाभ होता है। स्तुति से मिथ्यात्व रूपी अन्धकार नष्ट होता है। यथार्थ दर्शन की क्षमता प्राप्त होती है। आत्मा अन्धकार से प्रकाश, असत्य से सत्य एवं संसार से मोक्ष के पथ पर गतिशील हो जाती है। द्वितीय आवश्यक के रूप में साधक भक्तिभाव से चौबीस तीर्थंकरों का गुणगान करता है और भावना करता है कि चौबीस जिनदेवों में अध्यात्म का जो उत्कर्ष उत्पन्न हुआ, मेरी आत्मा में भी वही उत्कर्ष उत्पन्न हो। ०० आवश्यक सूत्र // 63 // Ind Chp.: Chaturvinshati-Stava PIRITrapparapparappears -उत्त. २९/९ ಶಗಳಳಳಕಗಳಗಳನೆಣಿ Sasasthak Ea
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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