________________
जाणेज्जा-"अणुग्गए सूरिए, अत्थमिए वा" से जंच मुहे, जंच पाणिसि, जंच पडिग्गहे, तं घर
विगिंचेमाणे विसोहेमाणे नाइक्कमइ जोतं भुंजइ, जंतं साइज्जइ। 25. भिक्षु का सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व आहार लाने का एवं खाने का संकल्प होता है।
जो समर्थ भिक्षु संदेह रहित आत्मपरिणामों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके खाता से हुआ यह जाने कि “सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" उस समय जो आहार मुँह में या हाथ में लिया हुआ हो और जो पात्र में रखा हुआ हो उसे निकालकर परठता हुआ तथा मुख, हाथ और व पात्र को पूर्ण विशुद्ध करता हुआ वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। किन्तु जो उस शेष पूरे
आहार को खाता है अथवा खाने वाले का समर्थन करता है। 26. भिक्षु का सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व आहार लाने का एवं खाने का संकल्प होता है। घर
जो समर्थ भिक्षु संदेहयुक्त आत्मपरिणामों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके खाता र हुआ यह जाने कि “सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" उस समय जो आहार मुँह में या 2 हाथ में लिया हुआ हो और जो पात्र में रखा हुआ हो उसे निकालकर परठता हुआ तथा मुख, हाथ 88 व पात्र को पूर्ण विशुद्ध करता हुआ वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। किन्तु जो उस शेष सर
आहार को खाता है अथवा खाने वाले का समर्थन करता है। 27. भिक्षु का सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व आहार लाने का एवं खाने का संकल्प होता है। घर
जो असमर्थ भिक्षु संदेह रहित आत्मपरिणामों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके खाता र हुआ यह जाने कि “सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" उस समय जो आहार मुँह में या 1 हाथ में लिया हुआ हो और जो पात्र में रखा हुआ हो उसे निकालकर परठता हुआ तथा मुख; हाथ र व पात्र को पूर्ण विशुद्ध करता हुआ वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। किन्तु जो उस शेष र
आहार को खाता है अथवा खाने वाले का समर्थन करता है। 28. भिक्षु का सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व आहार लाने का एवं खाने का संकल्प होता है।
जो असमर्थ भिक्षु संदेहयुक्त आत्मपरिणामों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करके खाता और हुआ यह जाने कि "सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है" उस समय जो आहार मुँह में या रे हाथ में लिया हुआ हो और जो पात्र में रखा हुआ हो उसे निकालकर परठता हुआ तथा मुख, घरे हाथ व पात्र को पूर्ण विशुद्ध करता हुआ वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। किन्तु जो उस पर शेष आहार को खाता है अथवा खाने वाले का समर्थन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त और
आता है।) 25. For an ascetic to take or to beg food before the sun set and after the sunrise is the
resolve, the capable ascetic who becoming doubtless, eats by accepting the food, water, sweets and the tasty items presuming that "the sun has not risen or the sun has set" discards the food that has been taken in his mouth or hands or have been kept in the utensil at that very time. Cleanse the mouth, hands and utensils completely by doing so he does not break the laws of Jainism, but who eats the left over food or supports the ones who eats so.
| निशीथ सूत्र
(182)
Nishith Sutra