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अरिहंत परमात्मा का अत्यंत शुद्ध - विशुद्ध स्वरुप ऐसा है । यह समझने योग्य है । जैन दर्शन की मौलिकता समझने योग्य है । स्वतंत्र विचार धारा समझने योग्य है । सभी दर्शनों से और सभी धर्मों की अपेक्षा यह स्वतंत्र विचार धारा है। ईश्वर के स्वरुप को शुद्ध रुप में मानकर उपासना करनी चाहिए । जो आराध्य देव है जिन्हें हम
जो देवाणविदेवो जं देवा पंजलि नमसंति । तं देवदेवमहिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥
जो देवताओं के भी देव हैं, जिन्हें देवतागण भी अंजलिबद्ध प्रणाम करते हैं, वे देवताओं के देव इन्द्रादि द्वारा पूजित हैं, ऐसे परमात्मा को मात्र देव ही न माने, क्योंकि मात्र देव कहने से स्वर्ग के देव के रुप में मान्यता हो जाती है, अतः इस श्लोक में देवताओं के भी देव देवाधिदेव हैं । इस अर्थ में परमात्मा को पूजनामानना है ।
__ जिन परमात्मा पर हमारे सम्यक्त्व का अर्थात् सच्ची श्रद्धा का आधार है, जिनकी आज्ञा को ही धर्म रूप में मानते हैं, वे ही आराध्य देव, उपास्य देव, उपासना के केन्द्र स्थान हैं । इन्हें भली प्रकार से पहचान कर समझकर भजने हैं। कहीं ऐसा न हो जाए कि जिनकी हमने आजीवन पूजा, आराधना की, उन्हें ही हम पहचान न सके ऐसी भयंकर भूल अन्त में समझ में आये, अंत में इसका पश्चाताप हो, इसके लिये परमात्मा का शुद्ध स्वरुप पहले ही समझने की आवश्यकता है । इसीलिये इस प्रवचन-लेखन के माध्यम से परमात्मा की स्तवना की है । सभी साधकों के लिये यह मार्गदर्शन उपयोगी और उपकारी हो, पुण्यात्मा इस प्रक्रिया से आत्मिक विकास साधकर एक दिन अरिहंत बनकर अनेकों को तिराकर मोक्ष सिधावें - यही सही अभ्यर्थना है । इसी उदात्त भावना के साथ मेरा कथन यहीं समाप्त करता हूँ।
ॐ सर्वेऽपि जिनाः भवन्तु म
सर्वे भवन्तु च सिहाः ॥
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