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उत्कृष्टता से १७० तीर्थंकर भगवंत :
वर कणय शंख विदुम, मरगय घण सन्निहं विगय मोहं ।
सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामर पूइयं वंदे ॥ .. जिनेश्वर भगवान का पांच वर्णो की अपेक्षा से विभाजन किया गया है - (१) श्रेष्ठ सुवर्ण - जैसे पीत वर्णवाले (२) शंख जैसे श्वेत वर्णवाले (३) विद्रुम-परवाला जैसे लाल वर्णवाले, (४) मरकतमणि जैसे हरितवर्णवाले और (५) आकाश में छाए हुए घनघोर काले बादलों के जैसे श्याम वर्णवाले । ऐसे पाँच प्रकार के वर्ण जिनेश्वर भगवान के संबंध में गिनाए गए हैं । ध्यान साधना में इन वर्गों की अत्यन्त उपयोगिता रहती है । वर्षों के आधार पर ध्यान साधना की जाती है । ज्योतिष के आधार पर नौं ग्रहों की साधना इन पांच वर्णो के नौ ग्रहों के वर्ण के साथ मिलान करके की जाती है । ___ ऐसे पांच प्रकार के उत्तम वर्णवाले मोहादि से रहित १७० जिनेश्वर भगवंत जो सभी देवताओं के द्वारा पूजित हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हुं ।
. १७० तीर्थंकर भगवंतो की गणना निम्न प्रकार की गई है । ढाई द्वीप में १५ कर्मभूमियो का वर्णन जो हम पहले कर चुके हैं उसके अनुसार ढाई द्वीप में पांच महाविदेह क्षेत्र हैं । एक महाविदेह क्षेत्र में ३२ विजय (१६ पूर्व की १६ पश्चिम की) होती है, प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थंकर की गणना से एक महाविदेह क्षेत्र में ३२ तीर्थंकर हो सकते हैं, ऐसे ५ महाविदेह क्षेत्र हैं, उन सभी में ३२-३२ के हिसाब से गिनने पर ३२४५ = १६० तीर्थंकर उत्कृष्ट रुप से हो सकते हैं । और वैसे ही भरतक्षेत्र भी पांच है तथा ऐरावत क्षेत्र भी पांच है, ये ५+५ = १० क्षेत्र में १० तीर्थंकर एक साथ हो सकते हैं, इस प्रकार १६०+५+५ = १७० तीर्थंकर अजितनाथ भगवान के काल में हुए थे । उत्कृष्ट रुप से समकालीन तीर्थंकर इतने ही होते हैं, इससे ज्यादा नहीं ।
तीर्थंकरो के चार सार्थक विशेषण :
जैन शास्त्रों में चार महान् विशेषणों से तीर्थंकर परमात्मा का अभिवादन किया है । प्रभु क्या क्या है ? किस स्वरुप में है ? यह बताते हुए कहा है कि (१) महा माहण (२) महा सार्थवाह (३) महा निर्यामक और (४) महा गोप । ऐसे बडे ही गंभीर अर्थवाले चार विशेषण लगाए है ।
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