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________________ जिनेश्वर परमात्मा जब साक्षात् स्वदेह से विद्यमान नहीं है तब उनकी आकृतिप्रतिमा बनाकर उनकी उपासना की जाती है । भगवान महावीरस्वामी मात्र ७२ वर्ष के ही आयुष्यवाले थे उनका भी आयुष्य पूर्ण हो गया और वे मोक्ष सिधार गये तत्पश्चात् पाँचवा आरा-पंचम काल-कलियुग आया । यह पाँचवा आरा २१००० वर्ष का है । इस पाँचवे आरे में तीर्थंकर रहते नहीं है और होते भी नहीं है, तब क्या इतना लम्बा समय सर्वथा भगवान के बिना ही बिता दिया जाय ? जिस धर्म के केन्द्र में भगवान आराध्य स्वरुप में हो, उन आराध्य परमात्मा को भूलकर धर्म कैसे किया जा सकता है ? जबकि २१००० वर्ष तक प्रभु महावीर का शासन अखंड रुप से चलने वाला है - इसमें कोई शंका नहीं है, अतः हमारे पूर्वज महापुरुषों ने जिनप्रतिमाएं-मूतियाँ भरवाई-बनवाई और उनके भव्य जिनालय बनवाए । उन में जिन प्रतिमाओं की स्थापना-प्रतिष्ठा की और भगवान के रुप में स्वीकार की तब आज हम भी प्रभु भाव से, भगवत्भाव से नित्य पूजा-करते हैं । प्रभु दर्शन हेतु मंदिर जाते हैं । प्रभु प्रतिमा के समक्ष दर्शन करने हेतु खडे रहकर स्तुतिगान करते हैं, इस दर्शन की प्रक्रिया को 'दर्पण में स्वयं के दर्शन करने की प्रक्रिया' ऐसी उपमा देकर तुलना की जा सकती है, जैसे एक व्यक्ति दर्पण में अपनी मुखाकृति देखता है, वह स्वयं को देखता है, तो क्यों देखता है ? बाल आदि की अस्त-व्यस्तता, आदि दोषों को निकालने हेतु । स्वदोष दर्शन और प्रभु गुणदर्शन की प्रक्रिया का नाम है प्रभुदर्शन । जिनप्रतिमा समक्ष खडे होकर भगवान के गुणों से भरी हुई स्तुति बोतेबोलते प्रभु के गुण गाए जाते हैं । प्रभु अनंत गुणों से भरे हुए हैं । अनंत में हमें अपनी बुद्धि से, शक्ति से जितने भी गुणों की स्तवना कर सके उतनी करनी चाहिए। उसमें प्रभु के जो जो गुण गाए जाय उनका अभाव मुझ में है अर्थात् मेरे में ये गुण नहीं है बल्कि इन से विपरित दोष और दुर्गुण (मेरे में) भरे पड़े हैं - उदाहरणार्थ - प्रभु में वीतरागता है, मेरे में राग-द्वेष हँस-ठूसकर भरे पडे है, प्रभु सर्वज्ञ हैं मैं अल्पज्ञ हुं, प्रभु सर्व प्रकार से पूर्ण - संपूर्ण है मैं सर्व प्रकार से अपूर्ण हुं - इस प्रकार एक-एक करके प्रभु के सभी गुण देखते जाते हैं और उनके सामने अपने दोष-दुर्गुण देखते जाते हैं तो अपनी आत्मा का परिचय प्राप्त होगा । पूज्य उदयरत्न महाराज शांतिनाथ भगवान के समक्ष यह भाव व्यक्त करते हुए स्तवन में इस प्रकार के शब्दों से वर्णन करते हैं - सुणो शांति जिणंद सौभागी, हुं तो थयो छु तुम गुणरागी; तुमे निरागी भगवंत, जोतां किम मलशे तंत । सुणो ॥१॥
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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