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देवता अपना आचार समजकर,जानकर हर्षोल्लास के साथ प्रभु को इस प्रकार निवेदन करते हैं।
अनंतकरूणा के सागर प्रभु उस दिन से वार्षिक दान देने की शुभ शुरूआत करते हैं। एक वर्ष तक यथेच्छ दान देते हैं। लोगों को जितना चाहिये उतना दान देते हैं । धन-धान्य-वस्त्र-पात्रादि सभी प्रकार का यथेच्छ दान देते हैं । प्रतिदिन साढे बारह करोड सुवर्ण मुद्राओं का दान देते हैं । ऐसे प्रभु एक वर्ष में ३,८८,८००००००, तीनअरब, अठयासी करोड, अस्सी लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान करते हैं।
वर्षान्ते परमात्मा दीक्षा लेने का अवसर हो चुका है ऐसा जानकर महाभिनिष्क्रमण करते हैं, कुटुम्ब,-पुत्र- पत्नी-परिवार एवं सगे-स्नेही- संबंधीजन सभी का त्याग करते हैं । गृहस्थाश्रम से निकलकर प्रभु अणगार भाव को प्राप्त करने हेतु आगे बढते हैं । शुभ मुहूर्त में प्रभु शिबिकारुढ होते हैं,दीक्षा की भव्य शोभायात्रा निकलती हैं। सभी प्रजाजन शोभायात्रा में सम्मिलित होते हैं । दीक्षा की भव्य शोभायात्रा राजधानी के राजमार्गो पर होती हुई नगर से बाहर ज्ञातखंड उद्यान में आती है । प्रभु शिबिका से उतरकर अशोक वृक्ष के नीचे खडे रहेते हैं। स्वयं ही वस्त्राभूषण आदि उतारकर त्याग करते हैं,काया की भी माया न रह जाय अतःपंचमुष्ठि लोच करते हैं । केश लुंचन के बाद केशों को कुलमहत्तरा ग्रहण करती है । तत्पश्चात् परमात्मा ‘करेमि सामाइयं के पाठ से यावत्जीवन चारित्र धारण करते हैं । चारित्र ग्रहण के साथ ही प्रभु को चौथा मनःपर्यवज्ञान प्राप्त होता हैं । त्यारबाद प्रभु छठ्ठ अट्ठम आदि का पच्चक्खाण करते हैं । सर्वस्व का त्याग ही दीक्षा-संयम है, प्रभु संयम ग्रहण के बाद तुरन्त ही समस्त प्रजाजनों के मध्य से विहार कर जाते हैं । यह है प्रभु का दीक्षा -कल्याणक/प्रभुका चारित्र अंगीकार करना भी जगत के लाभार्थहोने वाला है, क्योंकि प्रभु उपसर्गों को सहन करके कर्मक्षय करेंगे । कर्मक्षय से केवलज्ञान, केवलदर्शन और वीतरागता की प्राप्ति होगी, प्रभु सर्वज्ञ बनेंगें। सर्वज्ञ प्रभु अपने केवलज्ञान से जगत के सभी जीवों का कल्याण करने वाली अमृत देशना फरमाएंगे, जिससे भव्यात्माओं का कल्याण होगा अतःदीक्षा को भी कल्याणक के रूप में मनाते हैं।
केवलज्ञान की प्राप्तिः
दीक्षाग्रहण करके अणगार भाव में रहे हुए, साधु बने हुए भगवान वनोनगरो में विहार करते हैं, मौन रुप से अपनी साधना करते हैं । विविध प्रकार के
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