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________________ “द्रव्य-गुण-पर्याय रास” ग्रन्थ में कहते हैं कि- निश्चय दृष्टि को हृदय में धारण करके जो भी भाग्यशाली व्यवहार मार्ग का भी साथ ही साथ व्यवस्थित आचरण करता है, वही पुण्यशाली संसार समुद्र पार उतरता है । अपना कल्याण साधता है। जैसे एक स्त्री को रसोई करने का पूरा ज्ञान-पूरी जानकारी भी होनी ही चाहिए और उस तरह उसे व्यवहार में आचरण करते हुए रसोई भी करनी ही चाहिए। तभी सबका पेट भर सकेगा। यदि दोनों में से किसी एक मार्ग का भी वह स्त्री लोप करती है तो अनर्थ होता है । बिना रसोई के ज्ञान के कोई रसोई कैसे कर सकेगी? और रसोई का ज्ञान काफी अच्छा हो फिर भी यदि क्रियात्मक रूप से रसोई न करे तो सामग्रियाँ कैसे बनेंगी? क्या खाएंगे? पेट कैसे भरेगा? __. इसी तरह समझिए कि जैसे कोई मोटर, ट्रेन, प्लेन, जहाज आदि कुछ भी चलाता है तो निश्चित ही उसे चलाने का ज्ञान पूरा होना चाहिए। और ज्ञान है तो ज्ञान के अनुरूप चलाने की क्रिया भी करनी ही चाहिए। दोनों साथ ही आवश्यक है । ज्ञानात्मक स्वरूप निश्चय नय है और आचारात्मक क्रियात्मक व्यवहार मार्ग है। अतः दोनों की पूरी आवश्यकता अनिवार्य रूप से रहती है । किसी भी एक को छोड दे तो चलेगा ही नहीं। ठीक इसी तरह सामायिक की क्रिया करनेवाले को समता गुणधारक आत्म तत्त्व का ज्ञान होना ही चाहिए और पूजा करनेवाले को परमात्म तत्त्व का ज्ञान होना ही चाहिए। इसी तरह मुमक्ष-दीक्षार्थी एवं दीक्षित को मोक्ष का ज्ञान होना आवश्यक ही है। और यदि ज्ञान अच्छा पर्याप्त है तो निश्चयात्मक स्वरूप अच्छी तरह अपने आत्मसात् कर ले, फिर जो भी कुछ धर्मक्रिया-आराधना करे वह निश्चय के अनुरूप तथा अनुकूल ही होनी चाहिए । अर्थात् मोक्ष के अनुकूल-अनुरूप क्रिया प्रवृत्ति-संवर-निर्जरा की ही है । यदि वह ऐसा कहे कि . . संवर-निर्जरादि किसी भी प्रकार की क्रिया-विधि की क्या आवश्यकता है? कोई जरूरी थोडी ही है कि सामायिक प्रतिक्रमण करना? यदि ऐसा बोले तो निश्चित समझिए कि... वह व्यवहार धर्मलोपी है । जैसे चाय बनाने में पानी की जितनी आवश्यकता है, अरे ! अग्नि, तपेले आदि एक-एक प्रत्येक अंग की आवश्यकता रहती है। यदि एक भी साधन सामग्री कम रहे या न रहे तो निश्चित रूप से चाय नहीं हो सकती है। ठीक उसी तरह दर्शन-झान-चारित्र-तपादि प्रत्येक मोक्ष के अंगभूत साधन है। अतः प्रत्येक की आवश्यकता अनिवार्य है। निषेध करता रहे तो कैसे चलेगा? जी हाँ, तप कम-ज्यादा हो सकता है। यथाशक्ति है । अतः अपनी शक्ति के अनुरूप जो भी करे जितना भी करे चलता है। लेकिन तपमार्ग का ही लोप कर दे यह सर्वथा अनुचित ध्यान साधना से आध्यात्मिक विकास १०५१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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