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________________ ॥९ ॥ सच्चे धर्मी बनते । आलु-प्याज को सम्प्रदायवाद के रंग में रंगने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। अतः जो भी आराधक आत्माएँ हो उनको अभी भी समझना ही चाहिए। ताकि अनन्तजीवों की विराधना से बच सकें । जिनाज्ञा आगमाज्ञा का सही सम्यग् पालन हो सके। ध्यान में प्रवेश करने के जिज्ञासु को आज्ञा पालन यथार्थ करने के पश्चात् आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान में प्रवेश करने पर ध्यान भी सही हो पाएगा। ज्ञानार्णवादि ग्रन्थों में आज्ञाविचय वस्तुतत्त्वं स्वसिद्धान्तं प्रसिद्धं यत्र चिन्तयेत्। सर्वज्ञाज्ञाभियोगेन तदाज्ञाविचयो मतः ॥३२/६ ।। अनन्तगुणपर्यायसंयुतं तत्रयात्मकम्। त्रिकालविषयं साक्षाज्जिनाज्ञा सिद्धमामनेत् ॥ ३२/७ ।। सूक्ष्मं जिनेन्द्रवचनं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्धं च तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं तृतीयं योगिलोचनम् । नयद्रव्य समावेशात्साद्यनादि व्यवस्थितम् ॥१६ ।। निःशेषनयनिकषाग्रावसन्निभम्। स्याद्वादपविनिर्घातभग्नान्यमतभूधरम् ॥१६॥ सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगर्थान् विचिन्तयेत्। यत्र तद्ध्यानमाम्नातमाज्ञाख्यं योगिपुंगवैः ॥२२ ।। श्री शुभचन्द्राचार्य जैसे महान ज्ञानी-गीतार्थ महापुरुष ने अपनी मौलिक रचनारूप "ज्ञानार्णव" ग्रन्थ के ३२ वे सर्ग में आज्ञाविचय का २२ श्लोकों में अनोखा वर्णन किया है। उसका सारांश यहाँ इस संदर्भ में प्रस्तुत है जिस धर्मध्यान में जिनेश्वर के सिद्धान्त में प्रसिद्ध वस्तुस्वरूप को सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा की प्रधानता से चिन्तन करे यह आज्ञाविचय नामक प्रथम धर्मध्यान का भेद है। इसमें तत्त्व (पदार्थ) अनन्त गुण–पर्यायों सहित त्रयात्मक त्रिकालगोचर साक्षात् जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा से सिद्ध हुआ चिन्तन करें । जिनोक्त सूक्ष्म तत्त्व हेतु से बाध्य नहीं है। अतः आज्ञा से ग्राह्य है । क्योंकि भगवान ही जब वीतरागी है । और जो जो वीतरागी होते हैं वे अन्यथावादी नहीं होते हैं । यदि भगवान सर्वज्ञ ही न हो तो भी बिना जाने अज्ञानवश अन्यथा कहेंगे, और यदि वीतरागी ही न हो तो राग-द्वेषवश अन्यथा विपरीत कहेंगे। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०२९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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