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अपने-अपने गुणधर्मों के कारण परस्पर विरोधी धर्म-स्वभाववाले द्रव्य हैं । आत्मा नामक चेतन द्रव्य ज्ञान-दर्शनात्मक चेतनावाला द्रव्य है। जबकि जङ-अजीव पदार्थ वर्ण-गंध-रस-स्पर्शात्मक-ज्ञानादि रहित गुणधर्मवाले द्रव्य हैं। परस्पर विरोधी धर्मवाले स्व-स्वधर्म गुणादि धारक स्वतंत्र स्वभाववाले द्रव्य हैं । अतःआत्मा का स्वभाव ही आत्मधर्म है। आत्मा संबंधी विचारणा–विचय या ध्यान, धर्मध्यान कहलाएगा। आत्मस्वरूप प्राप्त करने के लिए जिन-जिन विचारों को करना, निर्णय संकल्पादि करना, मन के ऊपर उन-उन स्वभाव के संस्कारों को स्थायी करना उसे धर्मध्यान कहते हैं। धर्मध्यान से वस्तुस्वभाव में प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त होती है । और शुक्लध्यान से आत्मस्वरूपमय बनकर रहा जाता है । अतः क्रमशः शुरुआत धर्मध्यान से होती है । इस प्रकार के धर्मध्यान से अशुभ भावना या वासना से मन को पीछे हटाना और शुभ भावना या विचारणा से मन को पुष्ट किया जाता है। .
१) आज्ञा-जिनाज्ञा-सर्वज्ञाज्ञा संबंधी विचारों को करना, २) दुःख के कारणों संबंधी विचारणा करना, ३) दुःख के फलों संबंधी विचारणा करना, ४) तथा लोकस्वरूप ब्रह्माण्ड का विचार करना आदि धर्मध्यान है । इन चारों विषयों संबंधी योग्य विचारणा वस्तु के सत्य-यथार्थ स्वरूप को प्रकट करती है । यथार्थता की अनुभूति कराती है।
१) आज्ञाविचय धर्मध्यान
स्वसिद्धान्तप्रसिद्धं यत् वस्तुतत्त्वं विचार्यते।
सर्वज्ञानुसारेण तदाज्ञा विचयो मतः ॥ १२१॥ ध्यान दीपिकाकार आज्ञाविचय की व्याख्या स्पष्ट करते हैं । जैन सिद्धान्त में प्रसिद्ध जो वस्तुतत्त्व है उनका. जिनेश्वर सर्वज्ञ की आज्ञा के अनुसार ही विचार करना उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं । आज्ञा शब्द का अर्थ
आज्ञा शिष्टिर्निराड्निभ्यो देशो नियोगशासने।
अववादोऽप्यथा........ ॥ २७७ ॥ अभिधान चिन्तामणी शब्दकोष में आज्ञा, शिष्टि, निर्देश, आदेश, निदेश, नियोग, शासन, अववाद आदि आठों पर्यायवाची समानार्थक शब्द दिये है । आदेश-निर्देश को भी आज्ञा कहते हैं और शासन भी आज्ञा है। किसकी आज्ञा? कैसी आज्ञा मानना? इत्यादि विषयक विचारणा महत्व की है। १०२२
आध्यात्मिक विकास यात्रा