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________________ अनिच्छन् कर्मवैषम्यं ब्रह्मांशेन शमं जगत्। आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षंगमी शमी ॥२॥ महामहोपाध्यायजी जैसे ध्यानयोगी स्वानुभूति की बात ज्ञानसार के क्षमाष्टक में लिखते हुए कहते हैं कि... विकल्प के विषय से सर्वथा निवृत्त होकर निरंतर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आलंबन जिसे है, ऐसा जो ज्ञानात्मक परिणाम वही शम-समभाव है। कर्म के द्वारा किये हए विविध भेद को न देखता हआ लेकिन समस्त जीवों को आत्मत्व जाति की दृष्टि से समानरूप-एकरूप देखता हुआ उसमें अपने को भी जो अभिन्नरूप देखता है ऐसी उपशम भाववाली आत्मा... मोक्षगामी होती है। सच तो यह है कि उपरोक्त दोनों श्लोकों के भावार्थ को गौर से पढने, सोचने पर . .. आत्मध्यान की सुंदर प्रक्रिया इसमें से उपलब्ध होती है। ध्यानी के लिए निश्चित रूप से अन्दर प्रवेश करने के लिए विकल्प रहित होना ही पडेगा । संकल्प-विकल्पों के बीच परिभ्रमण करता हुआ यह चंचल चित्त विकल्प रहित हुए बिना ... स्व = आत्मा के स्वभाव का आलम्बन ले ही नहीं सकता है। और विकल्प इतने ज्यादा क्यों उठते हैं? क्योंकि मन इतना ही ज्यादा बाहरी विषयों में घूमता रहता है । आत्म बाह्य समस्त विषय विकल्प के विषय हैं । वे ही मोहनीय कर्म के विषयभूत पदार्थ हैं । अनेक जन्मों का उपार्जित मोहनीय कर्म अनेक-असंख्य जड़-चेतन पदार्थों पर ... मोहभाव ममत्ववृत्ति उत्पन्न करता है । वे सब बाहरी पदार्थ हैं । वे अनगिनत-असंख्य हैं । अतःबन्दर की तरह छलांग लगाता हुआ यह मन... जब एक पदार्थ का ममत्व भाव से विचार करे कि इतने में तो पास का दूसरा पदार्थ उपस्थित ही है। वहाँ जाता है, सामने तीसरा पदार्थ तैयार ही है। जहाँ बैठा है वह उसे दिखाई नहीं देता लेकिन अनादि का स्वभाव बन चुका है कि... सामने का दूसरा ही अच्छा लगता है। जैसे एक पिता को अपने पुत्र की अपेक्षा पराये बच्चे ही अच्छे होशियार लगते हैं । या एक स्त्री को मोहदशावश अपने घर के बजाय दूसरे का घर ही अच्छा लगता है । या अपने सुख की अपेक्षा दूसरों का सुख ही अपने से ज्यादा लगता है, और तुलना में अपना कुछ भी नहीं लगता है । खुद के कपडे (साडी आदि) की अपेक्षा दूसरों के ही ज्यादा अच्छे लगते हैं । यह स्वभाव बन गया है । ऐसी वृत्ति के कारण मन बाहर भटकता ही रहता है। एक से दूसरे पदार्थों का छलांग लगाकर दौडने-भटकने से कितने ज्यादा विकल्प उठते ही रहते हैं। मानों समुद्र में लहरें उठती ही रहती हो । विकल्प परिवर्तनशील है। जबकि ध्यान स्थिरता रूप है। अब आप ही सोचिए ! जहाँ दोनों परस्पर विरोधी है ऐसी विरोधाभाषी स्थिति में ध्यान कैसे करना ? • १०२० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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