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संसारी अल्प दानादि लब्धि के भी अन्तरायवाले होते हैं ।
संसारी नाम-रूप-रंग- आकारप्रकारवाले होते हैं ।
संसारी उच्च-नीच गोत्रवाले विविध जाति के भिन्न-भिन्न होते हैं ।
संसारी देह पिण्डाकार होते हैं ।
संसारी के गत्यन्तर, जात्यन्तर,
रूपान्तर, भवान्तर, जन्मान्तर होते हैं ।
८४ लक्ष जीव-योनि में परिभ्रमण
निरन्तर रहता है ।
संसारी तीनों लोक में परिभ्रमण करते हुए रहते हैं ।
संसारी वेदना - संवेदना - रोगादि ग्रस्त रहते हैं ।
संसारी सुख-दुःख ग्रस्त रहते हैं ।
संसारी को खेद - दुःख - विषाद सब रहता है ।
संसारी का पौद्गलिक वैभव सुखादि कम-ज्यादा रहता है ।
संसारी अष्ट महावर्गणाओं के ग्रहण- 1
- विसर्जन कर्ता होते हैं । संसारी के विचार - चिन्ता - चिन्तन
रहते हैं ।
संसारी के आहार - निहार का व्यवहार चलता है ।.
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सिद्ध अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यादि लब्धिवाले होते हैं । सिद्ध सर्वथा अनामी- अरूपीनिरंजन निराकार होते हैं । सिद्ध सर्वथा गोत्र एवं जातिरहित सभी समान होते हैं ।
सिद्ध प्रकाशपुंजवत् विद्यमान होते हैं ।
सिद्धों को गत्यन्तर, जात्यन्तर, रूपान्तर, भवान्तर, जन्मान्तर कुछ भी नहीं ।
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सिद्ध अयोगि अर्थात् उत्पत्ति, जन्म-मरण कुछ भी नहीं रहता है सिद्धों को सिर्फ लोकान्त में सिद्धशिला के ऊपर ही रहना है । सिद्धों को रोग - वेदनादि मन - शरीर के अभाव में कुछ भी नहीं । सिद्ध अनन्त-अव्याबाध सुख के भोक्ता होते हैं ।
सिद्ध को आनन्द - अनन्त होता है ।
सिद्धों को पौगलिक संसर्ग ही नहीं रहता है । अतः पुद्गलजन्य वैभव ही नहीं है ।
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सिद्धों को किसी प्रकार की वर्गणा लेनी -छोडनी रहती ही नहीं है । सिद्धों के न मन है, न विचार, न चिन्ता, न चिन्तन । कुछ भी नहीं ।
सिद्ध सदा अनाहारी ही होते हैं ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा