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________________ से भी पुनः संसार में आना और वापिस संसार में जाना मानते हैं । विषयसुख लोलुपी मोक्ष में भी विषयसुख मानते हुए कहते हैं कि मोक्ष में सुंदर रूपवती अप्सराएँ मिलती हैं । बस, उनको भोगते ही रहो। तथा मीठी मदिरा भी मिलती है। तथा रहने के लिए सुंदर बागबगीचे मिलते हैं। सब कुछ मनोहर मिलता है । बस, वही मोक्ष है । ऐसी नास्तिकों की विचारधारा है। ____ जैमिनि मुनि ने मीमांसा दर्शन में आत्मा कभी मुक्त हो ही नहीं सकती है ऐसा कहा है। कितनेक खरड ज्ञानी कहते हैं कि जो वेदोक्त अनुष्ठान कर्मकाण्डादि करता है वह सर्वथा उपाधिरहित हो ही नहीं सकता है । किन्तु शुभानुष्ठानों से उपार्जित पुण्य के फल में सुंदर देह प्राप्त करके ईश्वर के पास जाकर कई कल्पों तक सुख भोगता है । यथेच्छ उडकर सर्वत्र जाता-आता है । इस तरह चिरकाल तक वहाँ सुख भोगकर “क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशंति" पुण्य क्षीण हो जाने पर पुनः संसार में आकर जन्म धारण करता है। सदा के लिए मोक्ष में स्थिति बनी नहीं रहती है । ऐसी उनकी मोक्ष विषयक मान्यता है । इस तरह भिन्न-भिन्न दर्शनवाले धर्मवाले मोक्ष “मक्ति" के बारे में भिन्न-भिन्न मनघडन्त मान्यताएँ मान बैठे हैं । वाचकवर्ग को ख्याल आए इसलिए यहाँ विवरण किया है । सूज्ञ बुद्धिमान पाठक तुलना करके सत्य का निर्णय कर सकता है । ये मान्यताएँ क्यों और कैसे अनुचित हैं ? इसकी कुछ दार्शनिक विचारणा की है। फिर भी समझिए कि.. .बौद्धदर्शनमान्य अत्यन्ताभावरूप मोक्ष का स्वरूप मानने से तो... आत्मा का ही अभाव सिद्ध हो जाता है। तो फिर मोक्ष होगा ही किसका? न रहे बांस और न बजे बांसुरी, जैसी अभावात्मकता को मोक्ष कहना कहाँ तक उचित है ? दीप निर्वाण वद् कह कर दीपक के बुझ जाने की तरह मोक्ष कहने में भी अभावात्मकता ही सिद्ध होती है । इसलिए बौद्ध मत भी सत्य की कसोटी पर खरा नहीं उतरता है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन जो ज्ञानाभाव रूप मुक्ति को मानने की एक नई विचारधारा रखते हैं, काश ! अफसोस की बात तो यह है कि... उनके जैसे तार्किक इतना भी नहीं समझ सके कि ज्ञान आत्मा का अविनाभावी गुण है । यह उत्पन्न शील नहीं है। ज्ञान का अस्तित्व सदा आत्मा में ही रहता है। अतः ज्ञान कहीं नहीं रहता है, और ज्ञान बिना आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। फिर दोनों एक ही नहीं, एकरूप हैं । गुण-गुणी हैं । अतः ज्ञान आत्मा का लक्षण और गुण दोनों स्वरूपात्मक हैं । यदि लक्षण-गुण उड जाय तो लक्ष्य कैसे रहेगा? अतः आत्मा के ज्ञान गुण का अभाव होने से आत्म द्रव्य का १४७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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