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व्यवहार करके कभी किसी ने भाषा में प्रयोग भी नहीं किया । यद्यपि ये सभी शब्द संयोगिक शब्द हैं । संयोग दो में होता है । अतः शशशृंगादि सभी दो-दो शब्द मिलकर बने हैं। इसलिए स्वतंत्र रूप से इन दोनों शब्दों से वाच्य अलग-अलग पदार्थों का अभाव जगत् में नहीं है। उनका अस्तित्व तो तीनों काल में रहता ही है । मात्र संयोगिक अवस्था में एक रूप में आरोपण करते हैं तब अभाव सिद्ध होता है । उदाहरण के लिए... गधा भी संसार में सदा ही है । और सिंग भी तीनों काल में हैं। लेकिन दोनों को मिलाकर संयोगिक अवस्था में गधे के सिर पर ही सिंग, खरगोश के सिर पर सिंग यह संयोगावस्था एकरूप में नहीं है। संसार में वन्ध्याएँ सेंकडों हैं। और पुत्रवती माताओं के पुत्र भी सेंकडों हैं। लेकिन दोनों को एक करके एकरूप से संयोग करके व्यवहार करने पर... अभाव सिद्ध होगा। इसी तरह आकाश भी सर्व विदित है ही,... और कुसम-फूल भी तीनों काल में रहनेवाला ही है। फिर भी इन दोनों को मिलाकर जब आकाश में धरती के फूल का आरोपण करते हैं तब अभाव सिद्ध होता है। अतः ये सभी पदार्थ स्वतंत्र रूप से अपना अस्तित्व रखते हुए भी संयोगिक अवस्था में अभाव सिद्ध होता है।
ठीक इसी तरह मृत शरीर में आत्मा नहीं है । अतः मृतदेह संयोगिक आत्मा का अभाव सिद्ध किया जा सकता है। आत्मा नहीं है । ऐसा वाक्य प्रयोग सिद्ध करने पर.. . अभिप्रेत अर्थ यह रहता है कि अब इस शरीर में आत्मा नहीं है । जो कि देह छोडकर चली गई है। यहाँ काल संयोगिक निमित्त है । काल के संयोग से अभी थोडी देर पहले, इस शरीर में जीव थी। लेकिन अब नहीं है। इससे कालिक दृष्टि से थोड़ी देर पहले जिसकी भावात्मक सत्ता सिद्ध था उसी का कालान्तर में अभाव बताया जा रहा है। यह संयोगात्मक मात्र है, अन्यथा तीनों काल में आत्मा की सत्ता शाश्वत रूप से सिद्ध होती ही है। यदि संयोग ही नहीं होता तो वियोग कहाँ से आया? बिना संयोग के वियोग किसका? क्योंकि ये दोनों दो पदार्थविषयक है।
इसलिए त्रैकालिक अभावात्मक एक पदार्थ नहीं है । अतः शाश्वत नियम यही सिद्ध होता है कि... अभाव मानने के पहले पदार्थ की भावात्मक सत्ता माननी अनिवार्य है। अन्यथा भावात्मक अस्तित्व माने बिना आप अभावात्मक व्यवहार कर ही नहीं सकते हैं। क्योंकि समस्त संसार में.... एक भी पदार्थ ऐसा है ही नहीं जिसका सर्वथा त्रैकालिक अभाव स्वतन्त्र रूप से हो । दूसरी तरफ जो भी पदार्थ संसार में है उसका नाम है और जिस किसी का भी नाम है उससे वाच्य उस पदार्थ का अस्तित्व भी संसार में है ही । होता ही है। उसका अभाव स्वतंत्र नहीं होता है। परन्त कालिक, क्षेत्र सापेक्ष, और संयोग
विकास का अन्त सिद्धत्व की प्राप्ति"
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