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में है । प्रकृष्ट अर्थात् उत्कृष्ट, सर्वोत्कृष्ट की कक्षा में सर्वथा नाश होना चाहिए। किसका नाश ? पाप कर्मों का । मात्र पाप कर्म का ही नहीं लेकिन साथ ही साथ पुण्यकर्म का भी समूल नाश होना ही मुक्ति है । इस तरह नवकार के ७ वे पद में भी मोक्ष विषयक अर्थ की ही ध्वनि है । जो उपासक-साधक को अभिप्रेत अर्थ है । इस तरह सर्व कर्मों का क्षायिक भाव की कक्षा से ही नाश होना चाहिए। तभी आत्मा के सभी गुण क्षायिक भाव की कक्षा के प्रगट होंगे । शेष भावों में नहीं। जैसे पानी से अग्नि सर्वथा शान्त हो जाय, बुझ जाय वैसे ही आत्मा के कर्म सर्वथा समूल संपूर्ण क्षय हो जाय उसे क्षय कहते हैं । और उस प्रकार के संपूर्ण क्षय से उत्पन्न आत्मा के ज्ञानादि गुणों का परिणाम उसे क्षायिक भाव कहते हैं । इस तरह आत्मा के सभी गुण क्षायिक भाव की कक्षा के प्रगट होते हैं। चाहे वे अन्तराय कर्म के क्ष से दान- लाभ भोग-उपभोग और वीर्य ही क्यों न हो? तो वे भी क्षायिक भाव के प्रगट होंगे। जिसके कारण क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपयोग, और क्षायिक की कक्षा का वीर्यादि प्रगट होते हैं। ये पाँचो लब्धियाँ हैं । क्षायिक की कक्षा का आत्मगुण "अनन्त " स्वरूप में प्रगट होता है । अतः अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीतरागता, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, और अनन्त वीर्य ये सभी अनन्त की कक्षा में सिद्ध-मुक्तात्मा में प्रगट रहते हैं। अपने गुणों में सिद्ध वहाँ मस्त रहते हैं ।
पारिणामिक भाव
वस्तु मात्र का अनादि कालीन जो स्वाभाविक स्वभाव है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। वह कृत्रिम नहीं होता है। किसी भी कारण - निमित्तादि हेतु से परिवर्तनशील भी नहीं रहता है । जैसे जड पुद्गल में अजीवत्व - जडत्व वर्ण-गंध-रस-स्पर्शवत्व जो रहता है वह पारिणामिक भाव के रूप में है। सहज स्वाभाविक रूप से है । अपरिवर्तनशील है । अनन्त काल में भी कभी अजीव जड पदार्थ जीव के रूप में परिवर्तित नहीं होगा । और इसी तरह जीव में जो जीवगत भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व आदि पारिणामिक भावजन्य स्वरूप सहज स्वाभाविक रूप से हैं ये कृत्रिम नहीं होते हैं । और न ही अनन्त काल में भी परिवर्तनशील हैं। भव्यत्व कर्मजन्य नहीं है, इसी तरह अभव्यत्व भी कर्मजन्य - कर्मनैमित्तिक नहीं है । यह जीवगत सहज स्वाभाविक ही है । यदि कर्मजन्य हो तो उस कर्मप्रकृति का क्षय करने से परिवर्तन हो जाता । अभव्य भी भव्य बन जाता । या भव्य जीव वैसा कर्म बांधकर अभव्य बन जाता। लेकिन अनादि - अनन्त काल में भी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा