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________________ याद रखिए, उपरोक्त सारी कालिक व्यवस्था पाँचों भरत क्षेत्र तथा पाँचों ऐरावत क्षेत्र की समानान्तर व्यवस्था है । अतः यह कालिक व्यवस्था पद्धति सिर्फ भरत और ऐरावत सिर्फ इन दो (दश) क्षेत्रों में ही समझनी चाहिए। लेकिन महाविदेह क्षेत्र की कालिक व्यवस्था सर्वथा भिन्न प्रकार की ही है। इस जंबुद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम में लवण समुद्र तक फैला हुआ पूरा ३२ विदेहोंवाला बडा लम्बा-चौडा पृथ्वी का भाग महाविदेह क्षेत्र के नाम से कहलाता है । यहाँ भी हमारे यहाँ की तरह काफी आबादी है । वहाँ कालिक दृष्टि की अपेक्षा विचारणा करने पर शास्त्रों में ऐसा सिद्धान्त स्पष्ट किया है कि... पाँचों महाविदेहों में (२ ॥ द्वीप के) सर्वत्र सदा काल चौथा ही आरा रहता है । इससे भी बड़ा आश्चर्य तो इस बात का है कि वहाँ आराओं के काल का कोई परिवर्तन ही नहीं होता है। अतः वहाँ नित्य स्थायी काल की व्यवस्था है । सदा काल हमेशा ही चौथे आरे की व्यवस्था वहाँ है । इसलिए सदा काल महाविदेह क्षेत्र में से मोक्षगमन का मार्ग चालू रहता है । वहाँ से मोक्ष सदा ही मिलना सुलभ रहता है । तथा मोक्ष प्राप्ति के अनुरूप सारी सुलभता तीर्थंकर भगवंतों की अनेक केवलज्ञानियों की, साधु-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं की उपलब्धि वहाँ करोडों की तादात में मिलती है। अतः सदा काल ही धर्म की उपलब्धी रहती है। इस प्रकार शाश्वत रूप से, अखण्ड रूप से निरंतर देव-गुरु-धर्म की सहज सुलभता हो फिर तो पूछना ही क्या? वहाँ से तो प्रतिदिन या १ दिन में भी १०० बार कई जीव मोक्ष में जा सकते हैं। किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध ही नहीं है । ऐसी सुंदर कालिक अनुकूलतावाला महाविदेह क्षेत्र है। इस तरह क्षेत्र और काल का भी सापेक्ष भाव से विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। मोक्ष पाने के इच्छुक मुमुक्षु आत्मा को इन सबकी जानकारी होनी आवश्यक है। शाश्वत व्यवस्था के सनातन शाश्वत सिद्धान्तों को जानने से कहीं निरर्थक मिथ्याभिमानादि कुछ भी नहीं आता है । जिससे मिथ्या या उत्सूत्र प्रतिपादन आदि स्व–पर विषय में भी संभव नहीं रहता है। महाविदेह क्षेत्र में कहाँ कोई उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल की व्यवस्था ही नहीं है । आरोंके काल की व्यवस्था ही वहाँ नहीं है । अतः६ आरों का बदलना या चढाव-उतार की व्यवस्था का सवाल ही वहाँ नहीं है । महाविदेह क्षेत्र में २० विहरमान अर्थात् विचरमान सदाकाल विचरते तीर्थंकर भगवान रहते हैं। अतः अखंड रूप से तीर्थंकर भगवंतों की सुलभ प्राप्ति शाश्वत काल तक सदा ही रहती है । इसी तरह शाश्वत रूप से देव-गुरु-धर्म की व्यवस्था सदा ही वहाँ रहती है। अतः विरह-वियोग का तो १४३० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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