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________________ - 1 भी कारणभूत है और ये ही कषाय बंध में भी कारणभूत हैं। इसलिए कर्माणुओं को खींचकर आकर्षित करके आत्मप्रदेश में लाना और आत्मप्रदेशों के साथ एकरस करके बांधकर रखने का दोनों काम कषाय करते हैं । अतः कषायों के लिए ही दूसरा शब्द प्रयोग किया है— “ सम्पराय ” । तत्त्वार्थ भाष्यकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है“सम्परैत्यस्मिन्नात्मेति सम्परायः – चातुर्गतिकः संसारः" अच्छी तरह आत्मा को जो ४ गतिरूप संसार में लाए उसे सम्पराय कहते हैं । यही समान अर्थ है कषाय शब्द का । कष = संसार और आय = लाभ । अर्थात् संसार का लाभ हो, संसार बढे, उसे कषाय कहते हैं । अतः दोनों शब्दों से ही यह साफ-साफ सिद्ध हो जाता है कि - द्वेष - क्रोध- म - मान - माया - लोभ रूप कषाय करने से कर्मों का आश्रव होता है । फिर आत्मप्रदेशों के साथ उनका एकरसीभाव से बंध होता है और कर्म से लिप्त आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करती ही रहती है। इस तरह संसार का चक्र चलता ही रहता है । १ ले गुणस्थान मिथ्यात्व से लेकर जब तक कषायों का उदय और प्रवृत्ति रहती है वहाँ तक साम्परायिक बंध होता रहता है । मन, वचन, काया के तीनों योगों का कषायभाव राग द्वेष क्रोधादि ने अपने लिये ज्यादा उपयोग किया । इसलिए योग गौण हो गए और कषाय प्रधानरूप थे अतः उनसे ही आश्रव-बंध की क्रिया हुई । राग २) ऐर्यापथिक बंध - जीव के ४ थे गुणस्थान पर आ जाने के पश्चात् मिथ्यात्व का बंध हेतु समाप्त हो जाता है और छट्ठे, ७ वे गुणस्थान पर आ जाने के बाद अव्रत के आश्रव और बंध द्वारा दोनों समाज हो जाते हैं । ७ वे गुणस्थान के पश्चात् तो प्रमाद का भी नाम मात्र नहीं रहता है । इसी तरह १ ले गुणस्थान से कषाय की जो प्राधान्यता थी वह १० वे गुणस्थान तक चली । ११ वे गुणस्थान पर कषाय का उदय प्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं है परन्तु सत्ता में पड़े हैं अतः उदय होने की पूरी सम्भावना है । १२ वे गुणस्थान पर कषाय अब सत्ता में भी नहीं है परन्तु १२, और १३ वे गुणस्थानवालों को भी मन, वचन - काया - तीनों योग तो है ही । इन्द्रियाँ हैं । इन्द्रियों की क्रिया-प्रवृत्ति भी है । काया शरीर है अतः शरीर से गमन - आगमन आहार - निहारादि की भी सब प्रकार की प्रवृत्तियाँ करनी ही पडती हैं । अनन्त काल तक संसार चक्र में आज दिन तक के परिभ्रमण काल में जीव ने कषायभाव रहित होकर अपने मन-वचन-काया के योगों का कभी उपयोग या प्रवृत्ति ही नहीं की है । क्योंकि संसार में सदा ही राग-द्वेष के निमित्तों में जीव सदा ही फसा रहा, मन आदि तीनों योगों को सदा उसी में ही फसाकर रखा। इसलिए बिना राग-द्वेष की मनादि योगों की प्रवृत्ति का आनन्द कभी लूटा ही नहीं है । 1 1 I १३१० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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