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________________ वाणी के ३५ गुण जैसा कि ... पहले ४ अतिशयों का वर्णन कर चुके हैं। उसमें वचनातिशय की गणना की है। प्रभु के वचन भी अतिशय युक्त होते हैं। एक तरफ तो प्रभुजी १३ वे गुणस्थान पर आरूढ हैं, दूसरी तरफ वीतरागता पूर्ण है, तीसरी तरफ केवलज्ञान + दर्शन भी पूर्ण स्वरूप में है, चौथी तरफ अनन्त वीर्यादि की शक्ति है, पाँचवी तरफ तीर्थंकर नामकर्म की पुण्यप्रकृति प्रबल उदय में है, छट्ठी तरफ देवता गण भी सहायक बनकर साथ दे रहे हैं । इस तरह चारों तरफ से सर्वोपरिता - गुणवत्ता मिलने पर परमात्मा के अनेक वचन गुण विकसित होते हैं । वीतरागता के कारण राग-द्वेष जन्य भाषा का कोई प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है । इसलिए समवसरण में देशना देने के समय प्रभु की वाणी ३५ विशिष्ट गुणों से सुशोभित होती है— 1 I १) संस्कारकत्वम्- सुसंस्कृतादि लक्षणयुक्त । २) औदात्यम् - उच्च स्वर युक्त बोली जाती है । ३) उपचारवरीलता - भाषा में ग्रामीणता का अभाव । ४) मेघगम्भीरघोषत्वम्- बादलों की तरह गंभीर गर्जनावाली शब्द ध्वनि रहती है । ५) प्रतिनादनिधापति - प्रतिध्वनि हो वैसी । ६) दाक्षिणत्व- सरल भाववाली । ७) उपनीतरागत्वम्- मालकोशादि रागों के स्वरयुक्त होती है । ८) महार्थता - महान् अर्थवाली । ९) अव्याहतत्वम् - पूर्वापर वाक्य एवं अर्थ के विरोधरहित होती है । १०) शिष्टत्वम् - इष्ट सिद्धान्त के कथन तथा वाक्य की शिष्टता - सभ्यता सूचके होती है । ११) संशयरहित-संदेहरहित । १२) निराकृतान्योत्तरत्व - दूसरों के दत्तदोष से रहित, अर्थात् अन्य के दोषों का निराकरण - समाधान हो जाता है वैसी । १३) हृदयंगमम् - श्रोता के हृदय को आनन्द देनेवाली मनोहर । १४) मिथ: साकांक्षता - परस्पर वाक्य तथा पदों की सापेक्षता रखनेवाली । १५ ) प्रस्तावौचित्य - देश - काल का अनुसरण करनेवाली १६) तत्त्वनिष्ठता - वस्तु स्वरूप को दर्शानेवाली । १७) अप्रकीर्ण प्रसृतत्त्व - संबंध और विस्तार रहित - निरर्थक विस्तार रहित । १८) प्रस्वश्लाघाऽन्यनिन्दता - स्व प्रशंसा तथा अन्य की निंदा से रहित । १९) आभिजात्य - वक्ता की महान कुलीनता की सूचक, तथा प्रतिपाद्य विषय की भूमिका का अनुसरण करनेवाली, २० ) अतिस्निग्ध मधुरत्व - घी की तरह स्निग्ध और गुड जैसी मधुर-मीठी होती है । २१) प्रशस्यता - प्रशंसायोग्य । २२) अमर्मवेधिता- किसी के मर्म - रहस्य को प्रगट न करनेवाली । २३) औदार्य - तुच्छतारहित उदार कथनीय अर्थ की उदारतावाली । २४) धर्मार्थ प्रतिबद्धता - धर्म तथा अर्थ से युक्त संबंधवाली । २५) चारकाधविवर्भास - कारक, आध्यात्मिक विकास यात्रा १२६०
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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