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ष्करा
२॥ द्वीप में १५ कर्मभूमियां
होता है, यहाँ से ही मोक्ष होता है । इस
प्रथम धरती के नीचे के दक्षिण किनारे 1249
के भरत क्षेत्र में हम रहते हैं। बीच के केन्द्र भाग में पूर्व-पश्चिम प्रसरा हुआ महाविदेह क्षेत्र है। वहाँ सदा काल चौथा आरा होता है। वहाँ सदाकाल तीर्थंकर होते ही रहते हैं । यह तीर्थंकरों के होने की शाश्वत भूमि है । यहाँ होते ही रहते हैं। इसके ऊपर ऐरावत क्षेत्र उत्तरी छोर पर है । भरत और ऐरावत
क्षेत्र में परिवर्तनशील काल के ३ रे ४ थे आरे का समय आता है, तब उसमें ही तीर्थंकर होते हैं । अन्यथा शेष आरों में नहीं होते
.. १) जंबुद्वीप, २) घातकी खंड, और ३) पुष्करार्ध द्वीप । ऐसे ३ द्वीप हैं । इनमें पहले दो पूरे तथा तीसरा पुष्करार्ध द्वीप आधा ही है । इसलिए ढाई (२ ॥) द्वीप ही गिने जाते हैं । बीच में लवणसमुद्र तथा कालोदधि समुद्र भी है । वैसे कर्मभूमि के तथा अकर्मभूमि के कई क्षेत्र हैं । लेकिन इनमें जंबुद्वीप में १ भरत, १ ऐरावत, तथा १ महाविदेह ये ३ क्षेत्र हैं। दूसरे द्वीप घातकी खंड में ये ही तीनों दुगुने-दुगुने हैं । अर्थात् २-२-२ हैं । ठीक इसी तरह तीसरे पुष्करार्ध द्वीप में भी भरतादि क्षेत्र २-२-२ है । इस तरह कुल मिलाकर ५ भरत क्षेत्र + ५ ऐरावत क्षेत्र, तथा ५ महाविदेह क्षेत्र मिलाकर कुल १५ कर्मभूमियाँ हैं । जहाँ धर्म-कर्मादि सब होता है, उसे कर्मभूमि नाम दिया है । इन १५ कर्मभूमियों में ही तीर्थंकर भगवान होते हैं। इनमें भी जो ५ महाविदेह क्षेत्र हैं उनमें तीर्थंकर भगवान सदाकाल ही होते रहते हैं । वहाँ १ दिन भी ऐसा खाली नहीं जाएगा जिस दिन तीर्थंकर न हो । ऐसे एक-एक महाविदेह में कम से कम ४ तीर्थंकर भगवान तो होते ही हैं। ऐसे ५ महाविदेह क्षेत्र हैं । इसलिए ५ x ४ = २० तीर्थंकर भगवान कहलाते हैं । वैसे एक महाविदेह क्षेत्र में ३२ विदेह (अवान्तर क्षेत्र या देशादि होते हैं । अतः ३२ x ५ = १६० विदेह कुल ५ महाविदेह क्षेत्र में हुए । अतः महाविदेहों में उत्कृष्ट से तीर्थंकर होते हैं। हए-हए भी हैं। इसी तरह पाँचों भरत क्षेत्र में ५ तथा ऐरावत क्षेत्र में भी ५ इस तरह १६०
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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