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________________ इस तरह उपरोक्त २४ ही अलग-अलग जीव जिन्होंने वीशस्थानक की प्रबल साधना करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया है और परिणाम स्वरूप तीर्थंकर भगवान बनेंगे तब उनका उस भव में क्या नामादि होगा? यह भी ज्ञानी भगवंतों ने जैसा बताया है वैसे ऊपर लिखा है । इस तरह आगामी काल में चौबीशी = २४ तीर्थंकर भगवान बनेंगे। शाश्वत नियम यही है कि... पूर्व के तीसरे भव में अर्थात् तीर्थंकर भगवान बनने के पहले के (पूर्व के) तीसरे भव में वे तीर्थंकर नामकर्म उपाजन करते हैं। और फिर भगवान बनने के पहले का बीच का एक भव (जन्म) देवगति में देवता बनकर, या फिर पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय के कारण नरक गति में जाकर नारकी बनकर, बिताने के बाद में वहाँ से निकलकर मनुष्यगति में आकर अन्तिम भव में तीर्थकर भगवान बनते हैं। . आप पुनः गौर से देखिए कि तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करनेवाले इन २४ जीवों में नरक गति का नारकी कोई नहीं है । इसी तरह देवगति का देव जीव भी कोई नहीं है। तिर्यंच गति का पशु-पक्षी का भी कोई जीव नहीं है । बस, सिर्फ एकमात्र मनुष्य गति के ही जीव हैं। उनमें भी मिथ्यात्वी आदि कोई नहीं है । सभी ४ थे५ वे गुणस्थानवर्ती श्रावक श्राविका तथा ६ टे गुणस्थानवर्ती साधु साध्वीजी महाराज आदि ही हैं । आनन्दादि मुनि महात्मा हैं । शंख-शतक-पोट्टिल, श्रेणिक, अंबड आदि श्रावक हैं । इसी तरह सुलसा, रोहिणी, रेवती, देवकी, सत्यकी आदि श्राविका हैं। ये स्त्रियाँ हैं। फिर भी इन्होंने वीशस्थानक की साधना सुंदर की है और तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया है। आगामी चौबीशी में सभी पुरुषदेहरूप में ही भगवान बनेंगे। उस समय कोई स्त्री नहीं बनेगी। पुरुषप्रधानता है । पुरुष बनना श्रेष्ठ पुण्य की शुभ प्रकृति है । जबकि स्त्री बनना यह अशुभ पाप की प्रकृति है । लेकिन तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करने में कहीं कोई भेद नहीं है। यहाँ तो वीशस्थानक के २० पदों की साधना-आराधना तपादि द्वारा करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करना है। वीशस्थानक की आराधना स्त्री-पुरुष, साधु-साध्वी महाराज, श्रावक-श्रविका वर्ग सभी समान रूप से कर सकते हैं । यहाँ किसी में कोई भेद नहीं है । साथ ही सर्व जीवों के कल्याण की भावना भाने का भी शुभ योग है । यह भी कर सकते हैं। मात्र... शेष ३ गति के देवतादि जीव तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन नहीं कर सकते हैं। क्योंकि वे अविरति के उदयवाले होते हैं । व्रत-पच्चक्खाण नहीं कर पाते हैं और उसमें तो वीश स्थानकपदों की तपादि द्वारा उपासना करनी पड़ती है। जी हाँ,... तिर्यंच गति के पशु-पक्षी तो ५ वे गुणस्थान तक भी आ जाते हैं, फिर भी विशस्थानक की साधना और जगत् के सर्व जीवों के कल्याण की भावना इनके भी वश की बात नहीं रहती है। आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२४१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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