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________________ रहता है । शास्त्रकार फरमाते हैं कि अभ्यास से आहार, आसन, श्वासोच्छ्वास, चित्त की स्थिरता, जितेन्द्रिय होना, आनन्द, आत्मदर्शन, आदि सब कुछ बार-बार के अभ्यास से साधा जा सकता है । अभ्यास के लिए क्या असाध्य है ? इस तरह बार-बार के अभ्यास से विशुद्ध बुद्धिवाला, निर्मल बुद्धिवाला बनता ही जाता है। जिसका कि पीछे वर्णन कर चुके हैं वैसा ८ वे गुणस्थान पर शुक्लध्यान के प्रथम चरण का ध्यान करना प्रारंभ करता है । ऐसा ध्याता-ध्यानाग्नि के द्वारा... अनेकानेक कर्मों का क्षय करता हुआ आगे बढता है । इस योगी की ध्यान साधना-योग साधना बाह्य और आभ्यन्तर उभय कक्षा की अद्भुत अनोखी होती है। विशुद्धतर कक्षा की होती है। जिसमें ध्यानोपयोगी पद्मासन-सिद्धासनादि आसनों पर विजय प्राप्त कर चुका है। श्वासोच्छ्वास-प्राणायाम को भी. अभ्यास से जीत कर वश में कर लेता है। इस तरह प्राणशक्ति जीतने के कारण मन को भी जीत लेता है। बस, मनोविजय सबसे बड़ी जीत थी। अब इसके आगे कर्मक्षय का कार्य ही मुख्य है । गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थ में पूज्य श्री रत्नशेखर सूरि म. ने ध्यान, पवनजय, आसन, प्राणायाम आदि का विस्तार से वर्णन किया है । (जिज्ञासु अभ्यासुओं को वहाँ से अभ्यास कर लेना चाहिए।) . . ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान पर शुक्लध्यान के प्रथम चरण का जो ध्यान करता है यद्यपि प्राथमिक कक्षा में यह ध्यान भी प्रतिपाती की कक्षा का है-कहते हैं. यद्यपि प्रतिपात्येतदुक्तं ध्यानं प्रजायते। तथाप्यतिविशुद्धत्वादूर्ध्वं स्थानं समीहते ॥६६॥ यद्यपि (पहले कहा हुआ) प्रथम भेदवाला शुक्लध्यान जो क्षपक साधक करता है वह प्रतिपाती की कक्षा का है । अर्थात् ध्यान आता है, लगता है लेकिन वापिस चला भी जाता है । फिर भी वह ध्याता, क्षपक श्रेणीवाला योगी ध्यान द्वारा अत्यन्त ऊँची विशुद्धि प्राप्त करनेवाला होता है। ऊपर-ऊपर के आगे के गुणस्थानों पर चढने की तीव्र अभिलाषावाला होता है। अब क्षपक श्रेणीवाला साधक नौंवे अनिवृत्ति बादर गुणस्थान पर आरूढ होकर संज्वलनादि कषाय को, हास्यादि नोकषाय को, तथा वेद आदि मोहनीय कर्म की कर्मप्रकृतियों को खपाता है । बस, कर्मक्षय करने का ही प्रमुख लक्ष्य तथा प्रवृत्ति लेकर आगे बढनेवाला साधक नौंवे गुणस्थान पर मोहनीय कर्म की सबसे ज्यादा १२ कर्म प्रकृतियाँ खपाता है । क्षय करता है । अन्य भी मिलाकर ३५ कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में से, आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना ११८९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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